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उपा. यशोविजयरचित
ब्रह्म से अभिन्नता होने के कारण यदि अभेद माना जाय तो “पटः घटाद भिन्नः” यह प्रतीति नहीं होगी किन्तु घट के लिए भी 'पटः' यही बुद्धि होगी और पट के लिए भी घटः यही बुद्धि होगी, इसलिए घट-पटादि पदार्थी का भेद मानना चाहिए और घट-पट का यदि अभेद' हो तो "घटः पटः" ऐसा सामानाधिकरण्य भी घट पट में भासेगा. अतः भेद मानना आवश्यक है।
इस आशंका के उत्तर में वेदान्ती का कथन है कि-"घटः पटाद भिन्नः' इस प्रतीति में भेदप्रतियोगिता जो पट में भासित होती है वह पटस्वरूप है या पट का कोई धर्म है ? एवम् , भेदीय अनुयोगिता जो घट में भासित होती है वह घटस्वरूप है या घट का कोई धर्म है ? इस में प्रथम पक्ष तो भेद साधक नहीं हो सकता, कारण, वह पटभेद घटस्वरूप ही सिद्ध होता है, इस से पटनिष्ठप्रतियोगिता घटनिरूपितप्रतियोगिता बनती है और प्रतियोगिता भी पटस्वरूप है, तो पटस्वरूप घटनिरूपित प्रतियोगिता अपने स्वरूप में घट को भी रख लेती है । इसलिए घट-पट का अभेद ही सिद्ध हो जाता है । यदि वह प्रतियोगिता धर्मरूप है तो पटरूप धर्मी के साथ धर्मरूप प्रतियोगिता का कुछ सम्बन्ध मानना पडेगा । कोई भी सम्बन्ध यदि न हो तो भी धर्म-धर्माभाव माने गे तो, हिमाचल और विन्ध्याचल में भी धर्म-धर्मीभाव का प्रसङ्ग हो जायगा, अतः सम्बन्ध मानना आवश्यक है । वह सम्बन्ध भी असम्बद्ध होकर के पट में रहेगा, तो असम्बद्धत्व अन्य के साथ भी समान ही है, इसलिए पूक्ति हिमाचल और विन्ध्याचल में भी धर्म-धर्मीभाव का प्रसङ्ग आ पडेगा । अतः उस सम्बन्ध को पट में रखने के लिए सम्बन्धान्तर की अपेक्षा रहेगी, वह सम्बन्धन्तिर भी किसी अन्य सम्बन्ध से ही रहेगा, अतः अनवस्था का प्रसङ्ग होगा । इसी रीति से भेदानुयोगिता को घट में रखने के लिए किमी सम्बन्ध की अपेक्षा अवश्य होगी, वह सम्बन्ध भी सम्बन्धान्तर से ही रहेगा, उम को भी सम्बन्धान्तर की अपेक्षा होगी । तब तो अनवस्था का प्रसंग आए बिना नहीं रहेगा । फलतः प्रतियोगिता और अनुयोगिता दोनों के लिए पहले से ही अथवा अन्त में जाकर स्वरूप सम्बन्ध ही मानना होगा तब तो धर्मी का स्वरूप सम्बन्ध धर्मरूप होगा और धर्म का स्वरूप सम्बन्ध धर्मारूप होगा तब धर्मी और धर्म में अभेद सिद्ध हो जायगा, अतः घटनिरूपित प्रतियोगिता जो पटनिष्ठ है, वह घट को अपने स्वरूप में रखती हुई, पट से अभिन्न बनती है, तो घट भी पट से अभिन्न बन जायगा एवम्, पट निष्ठ प्रतियोगिता निरूपक भेदीय अनुयोगिता जो अपने स्वरूप में पट को रखती हुई, घटस्वरूप सिद्ध होती है तो पट भी घट से अभिन्न हो जायगा । इसरीति से समग्र जगत् का ऐक्य में ही पर्यवसान हो जायगा । यह जो प्रश्न किया था कि भेद को न मानने पर तत्तत् पद
और तत्तत् पदार्थो में वचित्र्य व्यवहार कैसे होगा और “घट:पटाद् भिन्नः" यह व्यवहार कैसे होगा ? वह प्रश्न भी संगत नहीं है । कारण, पारमार्थिक अभेद को मानते हुए भी वेदान्ती अपारमार्थिक भेद का खण्डन नहीं करते हैं, किन्तु अविद्या से कल्पित अपारमार्थिक भेद का स्वीकार करते हैं। उस अपारमार्थिकभेद का अवलम्बन करके ही तत्तत् पद और तत्तत् पदार्थों में वैचित्र्य व्यवहार होगा और “घटःपटाद भिन्नः" यह भेदव्यवहार भी होगा । यदि तार्किकों को शङ्का हो कि-'इसतरह के अभेद मानने में क्या प्रमाण