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नयरहस्ये नैगमनयः
है ? केवल युक्ति से अभेद सिद्ध करने में विश्वास नहीं रखा जा सकता, कारण, आप से अधिक युक्तिपटु कोई पण्डित देशान्तर वा कालान्तर में सिद्ध हो सकता है जो अपने प्रतिभा के बल से भेद का समर्थन कर सके-इस आशङ्का को दूर करने के लिए श्रीहर्ष का कहना है कि जिन तर्को के द्वारा मैने सकल जगत को सत् से अभिन्न सिद्ध किया है, वे तर्क श्रुति के अभिप्रायानुसारी ही हैं । “एकमेवाऽद्वितीय-नेह नानाऽस्ति किंचन' 'सर्व खल हुई ब्रह्म” इत्यादि श्रति वाक्यों से जगत में सदविशिष्टता का ही प्रतिपादन होता है । इसलिए अभेदसाधक तर्क जो दिए गए हैं, वे श्रतिप्रमाण के अनुकूल होने के कारण अविश्वसनीय नहीं है अतः सभी वस्तु सत् से अभिन्न हैं, यह मत सङ्गत है।
[ भेद अवास्तव होने पर अभेद भी असिद्ध-जैन मत ] (भेदस्यावास्तवत्वे) प्रकृत ग्रन्थ से ग्रन्थकार यह बताते हैं कि पूर्वयर्णित अद्वतवादि श्रीहर्ष का मत भी विचार करने पर मनोरम नहीं लगता, कारण, जगत में जो वैचित्र्य का अनुभव होता है और “घटःपटाद भिन्नः” इत्यादि भेद प्रतीति होती है उस का उपपादन करने के लिए भेद को वे अविद्याकल्पित मानते हैं। किंतु भेद को अविद्या कल्पित होने के कारण अवास्तव माना जाय, तो भेदाभावरूप अभेद भी अवास्तव ही होगा, क्योंकि जिस अभाव का प्रतियोगि अवास्तव होता है वह अभाव भी अवास्तव ही होता है । इस स्थिति में अभेद को वास्तव मानना सम्भवित नहीं हो सकता । कारण, अभेद भेदाभाव स्वरूप ही सिद्ध होता है। यदि वे कहे कि-"सदविशिष्ट सर्व" इस मान्यता में अविशिष्ट पद का अर्थ हम 'अभेद' नहीं करते हैं किन्तु अविशिष्ट पद से तादात्म्यरूप अर्थ विवक्षित है, ऐसा मानते हैं। तब तो तादात्म्य में अवास्तवत्व नहीं आता, क्योंकि तादात्म्य कल्पितप्रतियोगिक अभावरूप नहीं है ।' तब उन को पूछना चाहिए कि जगत में सत् का सर्वथा तादात्म्य आप को विवक्षित है, या कथञ्चित् तादात्म्य विवक्षित है? इस में प्रथम पक्ष तो सङ्गत नहीं हो सकता क्योंकि सत् का सर्वथा तादात्म्य घटपटादि प्रपञ्च में यदि विवक्षित हो तो जो अर्थ घट पद से विवक्षित होगा, वह अर्थ तो पटादि पदों का भी होगा क्योंकि सभी सदात्मक हैं । तब पुनरुक्ति दोष का प्रसङ्ग होगा। उपरांत, घट पद से ही सकल अर्थ का कथन हो जायगा तो पटादि पदों में निरर्थकत्व का भी प्रसङ्ग आ जायगा, क्योंकि पटादि पदों के उच्चारण का कोई प्रयोजन नहीं रहेगा, अतः सर्वथा सत्तादात्म्य को मानना शक्य नहीं है । यदि द्वितीय पक्ष विवक्षित करते हैं तो वह भी ठीक नहीं, क्योंकि कथञ्चित् तादात्म्य मानने पर भेद में वास्तवत्व माना जाय तो भी कोई विरोध नहीं रहता । किंतु तब सभी वस्तु में ब्रह्माभिन्नत्व की सिद्धि नहीं होगी । अतः आप के सिद्धान्त की हानि होगी. क्योंकि "एकमेवाद्वितीयम्" इस श्रुति के अनुसार ब्रह्मावत ही आप का सिद्धान्त है । एवम् “सदविशिष्ट सर्वम्" इस कथन से यदि सत् का कथञ्चित् तादात्म्य सर्व वस्तु में आप को विवक्षित हो, तो जैन सिद्धान्त में प्रवेश का प्रसंग आयगा क्योंकि जैन सिद्धान्त में भी “सदविशिष्टं सर्वम्” यह कथंचित् मान्य है। जन मत में "उत्पाद-व्ययध्रौव्ययुक्तं सत्” यह सत् का स्वरूप है और ऐसा सत्त्व सभी वस्तु में है इसलिए सभी