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नयरहस्ये नैगमनयः
मानैः मिमीते यः, नैगमस्य निरुक्तिः"] व्याख्याकार “हेमचन्द्राचार्थ'ने “न एक नक" ऐसा विग्रह कर के 'नेकैः' शब्द का "प्रभूतैः” ऐसा अर्थ कहा है । “नेकैः मानैः” इन दोनों पदों से “महासत्तासामान्यविशेषादिज्ञानैः” ऐसा अर्थ निकाला है। “भिमीते" शब्द से "वस्तूनि परिच्छित्ति” इस अर्थ का ग्रहण किया है, जिस से यह अर्थ निकलता है कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकमहासत्ताज्ञान, अनुवृत्तिबुद्धि जननस्वभाव परिणामात्मक सामान्यज्ञान, तथा व्यावृत्तिबुद्धिजननस्वभाव परिणामात्मक विशेषज्ञानों के द्वारा वस्तुओं का परिच्छेद जो करता है, वही गम नय है, नैगम शब्द की यही निरुक्ति अर्थात व्युत्पत्ति है । इस सूत्र के सारांश को लेकर ग्रन्थकार ने "नैकमानमेयविषयोऽध्यवसायो नैगमः” ऐसा अर्थ बताया है । इस में “नेक" शब्द का प्रभूत या अनेक अर्थ है, यहाँ "नैक" शब्द मान का विशेषण है । इस मान शब्द से यही अर्थ विवक्षित है, जिस को आचार्य हेमचन्द्र ने इस सूत्र की व्याख्या में प्रदर्शित किया है, अतः मान शब्द का महासत्ता ज्ञान, सामान्यज्ञान और विशेषज्ञान अर्थ यहाँ करना चाहिए । इन ज्ञानों से मेय-परिच्छेद्य विषय-अर्थ जिस के हैं वह अभिप्राय विशेष ही नैगम है । तत्त्वार्थसूत्र [१-३५] के भाष्य में “निगमेषु येऽभिहिताः शब्दाः, तेषामर्थः, शब्दार्थपरिज्ञानं च नैगमः” ऐसा लक्षण कहा गया है । भाष्य मे जो निगम शब्द है उस का अर्थ 'लोक' है । इस से लोक में जो शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त होते हों वे शब्द, उन शब्दों के अर्थ और उन शब्दार्थ का परिज्ञान "नैगम” है । ग्रन्थकार यह बताते है कि इस भाष्य में जो पूर्व दल है अर्थात् 'शब्दार्थपरिज्ञान च' यहाँ तक के भाव्यग्रन्थ का तात्पर्य उसी लक्षण में है, जो हम ने पहले बताया है। “लोकप्रसिद्धार्थीपगन्तृत्वम्” ऐसा नैगम का लक्षण ग्रन्थकार पूर्व में बता चुके हैं । तत्त्वार्थभाष्योक्त लक्षण से वह लक्षण मिलता जुलता है। तत्वार्थभाष्य में देशसमग्रग्राहि यह ग्रन्थ उत्तर दल है। इस का अभिप्राय लक्षण कथन में नहीं, किन्तु नैगमनय के विषयों का विभाग करने में है । यह उचित भी है. क्योंकि पूर्वदल से लक्षण का कथन हो चुका है, तब तो विषय का विभाजन ही अवशिष्ट रहता है जो उत्तर दल से किया गया है। निगम के विषय, विशेष और सामान्य ये दो होते हैं । जो नैगम प्रधानतया विशेषग्राहि होता है, वह देशग्राहिनेगम कहा जाता है और जो प्रधानतया सामान्यविषयक होता है, वह समयग्राही होता है। यद्यपि सामान्य विशेष दोनों ही वस्तु के एक देश हैं, इसलिए नैगम के दो भेद सम्भव नहीं है क्योंकि देशग्राहि नैगम में सामान्य भी भासित होता है और समग्रग्राहि नैगम में विशेष भी भासित होता है, तथापि स्याद्वाद" भाननेवाले आचार्य देशपद की प्रधानीभूतविशेषरूप अर्थ में परिभाषा, अर्थात् संकेत मानते हैं और समग्रपद की परिभाषा प्रधानीभूतसामान्यरूप अर्थ में मानते हैं । इसलिए विशेष प्रधान नैगम देशग्राहि नैगम है और सामान्यप्रधान नैगम समग्रग्राहि नैगम है, इस तरह का विषयविभाग सिद्ध होता है।
आशंकाः-नेगम यदि प्रधानतया विशेष और सामान्य का ग्राहक माना जायगा तो प्रमाण में और नेगम में कुछ भेद नहीं रहेगा क्योंकि प्रमाण भी विशेष और सामान्य का प्रधानरूप से ग्राहक माना जाता है, इस रीति से नैगम में भी प्रमाणत्व का प्रसंग होगा।