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नयरहस्ये नैगमनयः
[नैगमनय का लक्षण-लोकप्रसिद्ध अर्थ ग्राहक अध्यवसाय] (अथैतेषामिति) प्रकृत ग्रन्थ में अथ शब्द आनन्तर्यरूप अर्थ का बोधक है । “अनन्तर" शब्द से भावार्थक तद्धित प्रत्यय लगाने पर “आनन्तर्य' शब्द बनता है । 'अनन्तर" शब्द में प्रविष्ट अन्तर शब्द का व्यवधान अर्थ होता है । इसलिए "अर्थ” शब्द से व्यवधान रहित उत्तर काल का बोध होता है । लक्षण ग्रन्थ के आरंभ के पूर्व में प्रदेश, प्रस्थक, वसति दृष्टान्तों के द्वारा नैगम आदि सप्तविध नयों में विशुद्धि के तारतम्य का निरूपण ग्रन्थकार ने किया है। उसके बाद नगमादि सप्तविध नयों के लक्षणों का निरूपण करने की प्रतिज्ञा कर के ग्रन्थकार लक्षण निरूपण में प्रवृत्त होते हैं । इसलिए नयगत विशुद्धि तारतम्य निरूपण और नय विशेषों का लक्षण निरूपण इन दोनों में अव्यवहित पूर्वापरभाव है। यही "आनन्तर्य' पदार्थ है, इसी को अथ शब्द से सूचित किया गया है।
(निगमेषु इति) “निश्चयेन गम्यन्ते प्रयुज्यन्ते शब्दा यत्र” इस विग्रह के अनुसार जहाँ शब्दों का निश्चित रूप से तत्तत् अर्थों में प्रयोग होता है वे "निगम' कहे जाते हैं। शब्दों का प्रयोग लोक में होता है, इसलिए "निगम" पद का अर्थ लोक या जनपद यहाँ विवक्षित है । मनुष्यों का आवास जिस में रहता है, वह देश जनपद कहा जाता है, वहाँ शब्दों का तत्तदर्थों में प्रयोग होता है । इसलिए निगम शब्द का जनपद भी अर्थ होता है और इस शब्द का यह अर्थ है' तथा 'यह शब्द इस अर्थ का बोधक है' ऐसा शब्दार्थ का परिज्ञान भी लोक में या जनपद में होता है। अतः “निगम पद से लोक या जनपदरूप अर्थ यहाँ विवक्षित है। उन “निगमों" में होनेवाला जो अभिप्रायविशेष उसको "नैगमनय" कहते हैं । यहाँ "निगमों में होनेवाला" इसका अर्थ यही है कि लोकप्रसिद्ध अर्थ का स्वीकार नैगमनय करता है और लोक में प्रसिद्ध वस्तुमात्र में सामान्यात्मकत्व और विशेषात्मकत्व है, अर्थात् घटपटादि पदार्थ का निरूपण "नैगमनय' की दृष्टि से जब किया जाता है तब सकल घट व्यक्ति में आश्रित सामान्य घट का अवलंबन करना आवश्यक होता है क्योंकि सामान्य घट ही “घटः" इस तरह के प्रयोग में और "घटः” इस तरह की बुद्धि में हेतु है । तथा यह सुवर्ण घट है, यह रजा घट है, यह मृत्तिका वट है, इस तरह विशेष का भी निरूपण नैगम की दृष्टि से होता है, इसलिए सामान्य-विशेष ये दोनों अर्थ लोकप्रसिद्ध माने जाते हैं । अतः लोकप्रसिद्ध अर्थ को जो स्वीकार करे वह अभिप्रायविशेष ही "नैगमनय" हैं, ऐस
ऐसा नगम का लक्षण सिद्ध होता है । इसी लक्षण को शब्दान्तर में कहें, तो सामान्य और विशेष इन दोनों को स्वीकार करने वाला अध्यवसाय विशेष नैगमनय है एसा लक्षण सिद्ध होता है । ग्रन्थकार ने मूल ग्रन्थ में सामान्य विशेष पद के बाद और उभयपद के पूर्व में आदि पद का उपादान किया है । उस आदि पद से भेदाभेद, नित्यानित्य इत्यादि विरोधी द्वन्द्वों का सूचन किया है। इसलिए वस्तु मात्र में भेदाभेद इन दोनों का स्वीकार जिस में हो ऐसे अभिप्राय विशेष भी नैगम का लक्षण हो सकता है तथा वस्तु मात्र में नित्यानित्योभयात्मकत्व का स्वीकर्ता अभिप्राय विशेष भी नैगम का लक्षण हो सकता है।