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उपा. यशोविजयरचिते ___ आह-अतिरिक्तसामान्यविशेषानभ्युपगमे कथमनुवृत्तिव्यावृत्तिबुद्धिः ? न हि ते अहेतुके, न वैकहेतूद्भवे, न वा निर्विषये एव दोषजे इति ।-मैवम् , वस्तुन एव मृदादितुल्यपरिणामेनानुवृत्तिबुद्धेः, ऊर्ध्वताद्यतुल्यपरिणामेन च व्यावृत्तिबुद्धरुपपत्तेरतिरिक्तकल्पने मानाभावात् । तदुक्त'-'वस्तुन एव समानः, परिणामोऽयं स एव सामान्यम् । असमानस्तु विशेषो, वस्त्वेकमनेकरूपं तु ॥१॥" [] इति ।। होने से उपधेय भी है । एतादृश अभिप्रायविशेष नैगमपद का भी बोध्य है और नैगमत्वरूप उपाधि का भी उपधेय है । व्यवहारपद का प्रवृत्तिनिमित्त व्यवहारत्व और नैगम पद का प्रवृत्ति निमित्त नैगमत्व ये दोनों परस्पर भिन्न व्यवहारत्व और नैगमत्व रूप से बोध्यमान प्रकृत अभिप्रायविशेषरूप उपधेय एक ही अर्थ है। इसलिए एकार्थत्वरूप सांकर्य उपधेयों में यद्यपि है तथापि व्यवहारत्व और नैगमत्व इन दोनों उपाधियों में एकार्थत्वरूप सांकर्य नहीं है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि व्यवहारत्व जहाँ रहता है वहाँ भी नैगमत्व रहता है और जहाँ व्यवहारत्व नहीं रहता है ऐसे संग्रहत्वेन अभिमत अभिप्रायविशेष में भी नैगमत्व रहता है । इसलिए व्यवहारत्व की अपेक्षा से नैगमत्व व्यापक है, व्यवहारत्व नैगमत्व की अपेक्षा से व्याप्य है। जिन दो धर्मा में व्याप्यव्यापकभाव रहता है वहाँ सांकर्य नहीं होता है । जैसे पृथ्वीत्व-द्रव्यत्व का सांकर्य किसी मतवादी को मान्य नहीं है । एवं यादृश अभिप्राय विशेष संग्रहत्वेन मान्य है, तादृश अभि प्राय विशेष में भी नैगमत्व रहता है । तथा संग्रहत्व का अभाव व्यवहारत्वेन मान्य जिस अभिप्राय विशेष में रहता है, वहाँ पर भी नैगमत्व रहता है। इसलिए संग्रहत्व की अपेक्षा से नैगमत्वरूप उपाधि व्यापक है और नैगमत्व की अपेक्षा से संग्रहत्व व्याप्य है। इसलिए संग्रहत्व और नैगमत्व इन दोनों उपाधियों का मांकर्य नहीं है। इन दोनों उपाधियों का उपधेय अभिप्राय विशेष में एकार्थत्वरूप सांकर्य होने पर भी क्षति नहीं है क्योंकि व्यावर्तक धर्मा के द्वारा बोध्यमान अभिप्रायविशेष एकरूप होने पर भी विभिन्न बोध होने से विभिन्न ही प्रतीत होते हैं । जहाँ उपधेय में विभिन्नता प्रतीत होने का निमित्त नहीं रहता है, वहाँ पर ही उपधेयगत सांकर्य दोष माना जाता है । यहाँ तो उपधेयगत विभिन्नता प्रतीति का कारण विभिन्न उपाधिद्वय ही बन जाते हैं । इसलिए तृतीयपक्ष का आश्रय करने में किसी दोष का अवसर नहीं आता है।
[ अनुवृत्ति-व्यावृत्ति बुद्धि से अतिरिक्त सामान्य-विशेष की आशंका ] (आह-अतिरिक्त.) यहाँ कोई शंका करें कि-'वस्तु से अत्यन्त भिन्न, वस्तुगत सामान्य और विशेष को जैसे कणादमतानयायी लो विशेष यदि माना जाय तो नैगमनय में भी दुर्न यत्व का प्रसंग होगा ।-ऐसा जो आप पूर्व में कह आए हैं, वह स'गत नहीं है क्योंकि धर्मी से अतिरिक्त सामान्य यदि न माना जाय तो “घटोऽय-घटोऽय” इस तरह की अनुवृत्तबुद्धि नहीं होगी क्योंकि अनुवृत्तबुद्धि होने में सामान्य ही निमित्त है। तथा धर्मी से अतिरिक्त विशेष न माना जाय तो