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नयरहस्ये नैगमनयः अतिरिक्त तु सामान्य व्यक्तिष्वेकदेशेन समवेयात् , कात्स्न्येन वा ? आये सावयवत्वप्रसङ्गः अन्त्ये च प्रतिव्यक्ति नानात्वापत्तिः । न च व्यक्तिवृत्तित्वं सामान्यस्योपगम्यत एव, देशकात्य॑योस्त्वनुपगमादनुक्तोपालम्भ इति वाच्यम् , उक्तान्यतरप्रकाव्यतिरेकेणान्यत्र वृत्त्यदर्शनात् , अत्रान्यतरप्रकाराश्रयणेऽन्यतरदोषापत्तेर्वज्रलेपत्वादिति सम्मतिटीकाकृतामभिप्रायः ।
[ अतिरिक्त सामान्यवादी को अखिल-एकदेश वृत्तित्व का प्रश्न ] (अतिरिक्त०) सम्मतिटीकाकारने धर्मी से सामान्यरूपधर्म का सर्वथा भेद जो वैशेषिकों ने माना है उस का खण्डन किया है । जिन युक्तियों द्वारा अतिरिक्त सामान्य का खण्डन "सम्मतिटीका" में किया गया है, उन यक्तियों का संक्षिप्त प्रदर्शन प्रस्तुत संदर्भ में उपाध्यायजी ने किया है :- अतिरिक्तसामान्य व्यक्तियों में समवाय सम्बन्ध से रहता है, इस तरह की मान्यता वैशेषिकों की है । उन से पूछा जाता है कि व्यक्तियों में वह सामान्य एक देश से रहता है अर्थात् तत्तद अंशों से रहता है अथवा कात्स्न्य -सकलस्वस्वरूप से रहता है । यदि तत्तद् अंशों से तत्तद् व्यक्तियों में सामान्य का रहना माना जाय तो, सामान्य में सावयवत्व का प्रसंग होगा, कारण, अनेक व्यक्तियों में अंशतः सामान्य की वृत्ति सामान्य को सावयव माने बिना हो नहीं सकती । तत्तद् व्यक्तियों में रहने के लिए सामान्य का अनेक अवयव होना आवश्यक हो जाता है । सामान्य में सावयवत्व का स्वीकार वशेषिक कर नहीं सकते क्योंकि इन के सिद्धान्त में सामान्य नित्य-निरवयव-एक माना गया है। द्वितीयपक्ष का भी स्वीकार वैशेषिक के लिए इष्ट नहीं हो सकता, कारण, व्यक्तियों में सामान्य यदि अखिल रूप से रहेगा तो प्रतिव्यक्ति में भिन्न-भिन्न सामान्य मानना पडेगा, तो सामान्य में अनेकत्व की आपसि आ जायगी । यह भी वैशेषिक के सिद्धान्त से विरुद्ध ही होगा क्योंकि अनेक व्यक्तियों में रहनेवाले सामान्य को वे लोग एक मानते हैं। अनेक व्यक्तियों में समवेत तथा नित्य जो एक धर्म वही 'सामान्य' पद का अर्थ है ऐसी सामान्य पदार्थ की व्याख्या उन लोगों की है । सकल गो व्यक्तियों में समवेत, नित्य और एक, ऐसा जो गोत्व धर्म उसी को सामान्य वे लोग कहते हैं । इस व्याख्या के अनुसार घटत्व, पटत्व, गुणत्व, द्रव्यत्व इत्यादि धर्मों में 'ये सामान्य हैं' ऐसा व्यवहार वैशेषिकों का होता है । प्रत्येक गो व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न गोत्वरूप सामान्य है ऐसा व्यवहार उन लोगों का नहीं होता है । इसलिए सामान्य में अनेकत्व मानने पर व्यवहार बाध भी उन का लागू होगा । अतः अखिलत्व पक्ष भा वे नहीं मान सकते हैं।
[ अनुक्त उपालम्भ की आशंका-वैशेषिक ] शंका-वैशेषिकों का कहना है कि आकाशादि व्यापक वस्तु सकल मूर्त व्यक्तियों में वृत्ति माना जाता है, वहाँ देश और अखिलत्व का प्रश्न ऊठता ही नहीं है कि आकाश मत व्यक्तियों में एक देश से रहता है. या सामस्त्येन रहता है? उसी तरह सामान्य में
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