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. नयरहस्ये नैगमन यः समाधान :-आप के मत में ज्ञान से अतिरिक्त कोई भी वस्तु सत् नहीं है । इसलिए वासना को ज्ञानातिरिक्त तो आप मान सकते नहीं है, वैसा मानने में आप का सिद्धान्त विज्ञानाद्वैतवाद नहीं रह सकेगा। इसलिए अनादिवासनारूप दोष को ज्ञानरूप ही आप मान सकते है । तब यह प्रश्न उठता है कि वह अनादिवासनारूप बोधमात्र स्वरूप है या विशिष्टबोध स्वरूप है ? यदि वासना को बोधमात्र स्वरूप माने तो, समनन्तर प्रत्यय में भी वासना का प्रसंग आयेगा और समनन्तर प्रत्यय से ही उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति आप को मान्य है । अव्यवहित पूर्व ज्ञानक्षण ही आप के मत में स्वीकृत है । तब तो अनादिवासनारूप दोष से युक्त समनन्तर प्रत्यय से समुत्पन्न ज्ञान मात्र में अनुगताकारत्व का प्रसंग आयेगा । यदि विशिष्ट बोधस्वरूप अनादिवासना दोष माने, तो आप को बोधगत वशिष्ट्य क्या है-यह कहना पडेगा । हमारे सम्मत विषय को ही बोधगत वैशिष्ट्य आप भी मानते हो, तब तो, समानपरिणामरूप सामान्य आप को भी मानना आवश्यक होगा क्योंकि विषयरूप वशिष्ट्य का आपने भी स्वीकार किया है ।।
बौद्ध :-अनादि हेतु परम्परा जन्यत्व को बोधगत वैशिष्ट्य हम मानते हैं, विषयरूप वैशिष्ट्य को नहीं मानते हैं। इसलिए समानपरिणामरूप सामान्य मानना आवश्यक नहीं है।
जैन :-अनादिहेतु परम्परा जन्यत्वरूप वैशिष्टय से युक्त बोधरूप वासना को स्वीकार करे, तो समनन्तर प्रत्यष में अनादि वासनारूप दोष का प्रसग पूर्ववत् होगा क्योंकि ज्ञानमात्र में अनादिहेतु परम्परा जन्यत्व समानरूप से आपके भत मे रहता है और ज्ञानमात्र सभनन्तर प्रत्यय जन्य आप मानते हैं, तो ज्ञानमात्र में समानाकारता का प्रसग पूर्ववत् अवस्थित होगा।
बौद्धः-समुद्र के तरङ्ग समुद्र से भिन्न नहीं माने जाते हैं, तो भी समुद्र के तरंगों में समुद्राकार बुद्धि होती है, उसी तरह समाज परिणामरूप सामान्य न मानने पर भी समानाकारबुद्धि-अनुवृत्तिबुद्धि हो सकती है । तब समानपरिणामरूप सामान्य मानना निर. र्थक है।
जैन :-समुद्र में ऊर्मी की कल्पना का विषय जो समुद्र है, उस समुद्र को चित्रस्वभाव-एकानेक स्वभाव जरूर मानना पडेगा । एक स्वभावरूप विषय को लेकर यह समुद्र है ऐसी बुद्धि होती है और अनेक स्वभाव को विषय मानकर ये तरंग है, ऐसी बुद्धि होती है । अतः समुद्र में ऊर्मीबुद्धि भी विषय के बिना नहीं होती है। इसी तरह समानपरिणामरूप सामान्य माने बिना समानाकारबुद्धि-अनुवृत्तिबुद्धि नहीं हो सकती है। इसलिए समानपरिणामरूप सामान्य अवश्य मानना चाहिए । इस की विशेष विवेचना अन्य ग्रन्थों में "उपाध्यायजी" ने की है । विशेष जिज्ञासु लोगों को उन ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए । यहाँ तक के ग्रन्थ से कणादमतानुयायियों के सम्मत धर्मी से सर्वथा भिन्न सामान्य का निराकरण किया गया है और जैन सम्मत समानपरिणामस्वभाव सामान्य का समर्थन तथा सामान्य को वास्तव में नहीं माननेवाले बौदों के मत का निरास किया गया है।