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उपा. यशोविजयरचिते
यदि कहे - अनुवृत्तिबुद्धि और व्यावृत्तिवृद्धि की अन्यथा अनुपपत्ति से ही आप अतिरिक्त सामान्य- विशेष की सिद्धि करना चाहते हैं । सेो तो तभी संभव हो सकता है जब कि ये बुद्धियाँ प्रमारूढ होवे क्योंकि प्रमात्मक ज्ञान ही स्वविषय का साधक बनता है | ये बुद्धियाँ तो दोषजन्य होने के कारण भ्रमरूप हैं । भ्रम का विषय बाधित होता है । इस हेतु से भ्रम निर्विषयक ज्ञान माना जाता है । अतः ये ज्ञान भी निर्विषय है । इनके भ्रमरूप होने से इन ज्ञानों का विषय भी बाधित हैं, अतः अनुवृत्तिबुद्धि और व्यावृत्तिबुद्धि से सामान्य और विशेष की सिद्धि की आशा रखना व्यर्थ है ।
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तो यह ठीक नहीं, क्योंकि अनुवृत्तिवृद्धि और व्यावृत्तिबुद्धि को भ्रमरूप यदि माने तो, भ्रम का कारण दोष यहाँ क्या है ? इस का भी विचार करना होगा । खूब विचार करने पर भी कोई दोष लक्षित नहीं होता है । इसलिए इस ज्ञान को भ्रमरूप मानना संगत नहीं जान पडता । दूसरी बात यह है कि जिस ज्ञान से अनुवृत्तिबुद्धि का बाध आप को विवक्षित है, वह बाधक ज्ञान क्या है और कैसा है ? यह भी आप को बताना होगा, सो तो आप बता सकते नहीं है । विचार करने पर भी कोई बाध ज्ञान जो यहाँ हो, लक्षित भी नहीं होता है । अतः इस ज्ञान का विषय बाधित कैसे कह सकते हैं ? अत एव 'यह बुद्धि निर्विषय है' ऐसा कहना भी सम्भव नहीं है । तब तो प्रमारूप अनुवत्ति बुद्धि और व्यावृत्तिबुद्धि सामान्य और विशेषरूप अपने-अपने विषयों को अवश्य सिद्ध करेंगी, अतः धर्मी से अतिरिक्त सामान्य और विशेष आवश्य मानना चाहिए, इस तरह कणादमतानुयायी अपने मत का समर्थन करते हैं ।
[ तुल्य- अतुल्य परिणाम ही सामान्य - विशेष है - समाधान ]
(मैत्रम् - इति) कणादमतानुयायियों की उक्त आशंका का समाधान स्याद्वादी इस प्रकार करते हैं कि घटादि वस्तुमात्र का अनुवृत्तिस्वभाव है जो तुल्यपरिमाणरूप है और अतुल्य परिणामरूप व्यावृत्तिस्वभाव भी उसका है, कारण, स्याद्वादी को वस्तुमात्र सामान्यविशेषात्मक मान्य है । मृदादि तुल्यपरिमाण से अनुवृत्तिबुद्धि हो जायगी और ऊर्ध्वतादि अतुल्यपरिमाण से व्यावृत्तिबुद्धि हो जायगी । तब अनुवृत्तिबुद्धि और व्यावृत्तिबुद्धि के अनुरोध से अतिरिक्त सामान्य और विशेष का कल्पना करने में कोई प्रमाण दिखता नहीं है । अतः कणाद मतानुयायियों की धर्मी से सर्वथा भिन्न सामान्य- विशेष की कल्पना नियुक्ति है । धर्मी से सर्वदा अतिरिक्त सामान्य और विशेष नहीं है, किन्तु मृदादि वस्तु का समान परिणाम ही सामान्य है और असमान परिणाम ही विशेष है क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनेक रूप है अर्थात् सामान्यविशेषात्मक है- इस तरह का प्राचीनाचार्य वचन भी इस बात को दृढ़ करता है । इसलिए उपाध्यायजी ने 'तदुक्तम्' ऐसा कहकर मूल ग्रन्थ में प्राचीनाचार्य का वचन उल्लिखित किया है ।
वस्तुन एव समानः परिणामोऽयं स एव सामान्यम् । असमानस्तु विशेषो, वस्त्वेकमनेकरूपं तु ॥ १॥ इति ।