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उपा. यशोविजयरचिते प्रतिव्यक्ति पर्याप्तत्वे प्रतिव्यक्ति परिसमाप्त्यापत्तिः, अन्यथा तु द्वित्वादितुल्यतापत्तिरिति न्यायालेोके समर्थितमस्माभिः ॥ भी देशतः वृत्ति सामान्य है या सामस्त्येन वृत्ति है ? ऐसा प्रश्न ऊठाना और उस को मानकर दोष देना उचित नहीं है क्योंकि यह अनुक्तोपलम्भ कहा जाता है। कोई यदि गलत बोले या माने, उस पर उसके कथन या मान्यता को युक्ति से निराकरण करना तो ठीक हैं, यदि कोई गलत न बोले और न उसकी मान्यता गलत हो उस का युक्ति से निराकरण करना यह अनुक्तोपालम्भ कहा जाता है । वैशेषिकों को देशरूप से अथवा अखिलत्व रूप से सामान्य का रहना स्वात ही नहीं है। इसलिए ऐसे विकल्प करके उस का निराकरण अनुक्तोपालम्भरूप होने से युक्त नहीं है ?
[ तृतीय विकल्प का असम्भव-जैन ] समाधानः-रज्जु आदि पदार्थों का अंशरूप से ही अनेक स्थान में रहना देखा जाता है । नीलादिरूप का घटादि द्रव्यों में रहना सामस्त्येन देखा जाता है । इसलिए पदार्थों की वृत्ति दो ही प्रकार की देखने में आता है, इस से अन्य प्रकार की वृत्ति देखने में नहीं आती । तब तो सामान्य यदि व्यक्तियों में रहेगा, तो अन्य प्रकार से सामान्य का व्यक्तियों में रहना सम्भवित नहीं है अतः देश से सामान्य का रहना मानने पर सावयवत्व प्रसंगरूप दोष और अखिलत्वेन सामान्य का रहना मानने पर सामान्य में प्रतिव्यक्ति अनेकत्वापत्ति दोष वज्रलेप जैसा हो जायगा। जिस का निराकरण न हो सके ऐसे दोष का होना ही वज्रलेप कहा जाता है । अतः धर्मी से अतिरिक्त सामान्य और विशेष मानना कणाद मतानुयायियों का नितान्त गला मा है, यह सम्मतिटीकाकार का अभि. प्राय है।
[ अतिरिक्त सामान्य पक्षमें नये ढंग से दोषापादन ] (प्रतिव्यक्ति)-सामान्य के खण्डन में अन्य भी युक्तियाँ हैं । उपाध्यायजी उस का प्रदर्शन करते हैं-वैशेषिक लोग अतिरिक्त सामान्य को यदि प्रत्येक व्यक्ति में पर्याप्ति सम्बन्ध से रहना माने, तो सामान्य की प्रत्येक व्यक्ति में परिसमाप्ति होगी अर्थात प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न सामान्य सिद्ध होगा । तब सामान्य में अनेकत्व का प्रसंग होगा, जो कणादमतानुयायियों के लिए अनिष्ट होगा। कारण, सकल गो आदि व्यक्तियों में गोत्वादि सामान्य एक ही होता है ऐसा उन का सिद्धान्त है । यदि प्रत्येक व्यक्ति में पर्याप्ति सम्बन्ध से सामान्य की स्थिति न मानकर सकल गाय आदि व्यक्तियों में ही गोत्वादि सामान्य की स्थिति को माने तो द्वित्व, त्रित्वादि संख्या और सामान्य में तुल्यता का आपत्ति अर्थात् द्वित्वादि संख्या जैसे पर्याप्ति सम्बन्ध से उभय आदि व्यक्तियों में रहती है. प्रत्येक व्यक्ति में नहीं रहती है, उसी तरह सामान्य सकल व्यक्तियों में रहेगा और प्रत्येक व्यक्ति में नहीं रहेगा । तब "अयं गौः गोत्यान" ऐसी गोत्व सामान्य की एक गोव्यक्तिवृत्तित्व विषयक प्रतीति जो होती है वह न होगी। इस से अनुभवविरोधरूप दोष का प्रसंग होगा। अतः "उभयतःपाशा रज्जुः" इस न्याय से अतिरिक्त सामान्य का