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नयरहस्ये वसतिदृष्टान्तः
शब्दसमभिरूढेवम्भूतास्तु स्वात्मन्येव वसतिमङ्गीकुर्वते । न ह्यन्यस्यान्यत्र वसतिसम्भवः, सम्बन्धाभावात् , असम्बद्धयोराधाराधेयभावे चातिप्रसङ्गादिति दिक ॥ संस्तारकावच्छिन्न आकाशप्रदेश का अवच्छेदक संस्तारक है । इसलिए देवदत्त का संस्ता
Tथ 'स्वावच्छिन्नाकाशप्रदेशसमापवाकाशप्रदेशावच्छेदकत्व' सम्बन्ध हो जाता है, यही दोषरूप है । देवदत्त के वास का अभाव संस्तारक में रहने पर भी इस सामीप्यघटितपरंपरा सम्बन्ध से देवदत्त के वास की बुद्धि संस्तारक में हो जाती है। यह धुद्धि भ्रान्तिरूप होती है और यही बुद्धि संस्तारक में देवदत्त बसता है' इस व्यवहार का बीज होती है। इसी तरह ग्रहकोण में देवदत्त बसता है, इस व्यवहार का मूल भी भ्रान्ति ही है। वह भ्रान्ति गृहकोण में देवदत्त का वास न होने पर भी देवदत्त के वास की बुद्धिरूप है, उस भ्रान्ति में प्रत्यावृत्तिरूप दोष है । गृहकोण में देवदत्त का प्रत्यावृत्ति भी सामीप्य घटित है, क्योंकि गृहकोणावच्छिन्नाकाशप्रदेश देवदत्तावच्छिन्नाकाशप्रदेश के समीपवर्ती है इसलिए 'स्वावच्छिन्न आकाशप्रदेश समीपवती आकाशप्रदेशावच्छेदकत्व. रूप देवदत्त की प्रत्यासत्ति गृहकोण में पहुँचती है । इसी रीति से गृहमध्य में देवदत्त बसता है, इत्यादि व्यवहार भ्रान्तिमूलक होते हैं, भ्रान्ति में मूलभूत दोषरूप प्रत्यासत्ति की कल्पना निकट पूर्व में बताई गई है उस रीति से करनी चाहिए । संस्तारक आदि में देवदत्त के वास का व्यवहार प्रामाणिक नहीं है, यह ऋजुसूत्र की मान्यता उक्त विवेचन से सिद्ध होती है।
[वर्तमान काल में ही देवदत्त का वास स्वीकार्य ] (विवक्षित) जिन आकाशप्रदेशों में देवदत्त का संयोग होने पर देवदत्त का वास ऋजुसूत्र मानता है, उन आकाशप्रदेशों में भी वर्तमान काल में ही देवदत्त का वास उसको मान्य है । अतीत और और अनागत काल में देवदत्त का वास उन विवक्षित आकाशप्रदेशों में भी वह नहीं मानता है । कारण, अतीत और अनागतकाल की सत्ता भी उसको मान्य नहीं है । इतना ही नहीं अतीत अनागत काल में वर्तमान देवदत्त की सत्ता भी उसको मान्य नहीं है, उसको तो वर्तमानकाल में ही देवदत्त का सत्ता अभीष्ट है। दूसरा कारण यह भी है कि आत्मा के प्रदेश संसारी अवस्था में सदा कम्पनशील ही रहते हैंइसी को जैन परिभाषा में चलोपकरणता कहते हैं । इस चलोपकरणता के कारण प्रतिसमय देवदत्तादि सर्व संसारी जीवों का अवगाहनक्षेत्र बदलता रहता है । अतः पूर्वक्षण में देवदत्त (का आत्मा) जिन आकाशप्रदेशों में अवगाढ था, दूसरे क्षण में उस देवदत्त (के आत्मा) की स्थिति सूक्ष्म आंदोलन (कम्पन) के कारण बदल जाने से उसका अवगाहन क्षेत्र भी बदल जाता है । अतः ऋजुसूत्र के मत से दूसरे क्षण में पूर्वावगाढाकाशप्रदेश मात्र परिमित अवगाहना का सम्भव ही नहीं है ।
[तीन शब्दादिनय का वसतिदृष्टान्त में अभिप्राय] (शब्दसमभि० इत्यादि) शब्द. समभिरूढ और एवम्भूत, देवदत्त का जिन आकाशप्रदेशों में अवगाहन रहता है, उन आकाशप्रदेशों में भी देवदत्त का वास नहीं मानते