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नयरहस्ये प्रस्थकदृष्टान्तः
उपचार करके "मैं प्रस्थक करता हूँ" ऐसा उत्तर देता है । तो भी वनगमन क्रिया के उद्देश्यभूत काष्ठ में "प्रस्थक” के प्रयोग की अपेक्षा से छेदनक्रियान्वित काष्ठ में कुछ शुद्धि अवश्य है, क्योंकि अछिद्यमान काष्ठ से छिद्यमानकाष्ठ में प्रस्थक भाव का सामीप्य है। यह “नगम” का दूसरा भेद है । एवं प्रस्थक के निमित्त वन से लाए हुए काष्ठ की जब तक्षणक्रिया करता है, अर्थात् काष्ठ का “प्रस्थक” के लिए उपयुक्त खंड बनाता है, उस काल में यदि उस व्यक्ति को पूछा जाय कि 'क्या करते हो ?' तो वह भी यही जवाब देता है कि 'मै प्रस्थक बनाता हू"। यहाँ काष्ठ की तक्षणक्रिया से अन्वित काष्ठ प्रस्थक नहीं है, किन्तु तक्षणक्रियायुक्तकाष्ठ में “प्रस्थकत्व" का उपचार कर के वह ऐसा जवाब देता है कि 'मैं प्रस्थक करता ह"। इसलिए यहाँ भी उपचार का मिश्रण होता है, अतः अशुद्धि अवश्य है तो भी पूर्व की अपेक्षा से इस में शुद्धि है क्योंकि प्रस्थक निर्माण में छिद्यमान काष्ठ की अपेक्षा तक्षणक्रियायुक्त काष्ठ सन्निकृष्ट है यह नैगम का तीसरा भेद है ।
प्रस्थक बनाने में उपयुक्त काष्ठखण्ड में ऐसा शुषिरभाव बनाना आवश्यक होता है कि जिससे उस के भीतर धान्यादि का समावेश हो सके, तदर्थ काष्ठखण्ड के मध्यवर्ती अवयवों को निकोरना (खुदाई करना) आवश्यक है उसी को उत्किरण कहते हैं । उस उत्किरण को करते हए पुरुष को (बढई को) यदि पूछा जाय कि 'क्या करते हो? तो वह पुरुष भी यही उत्तर देता है कि 'मै प्रस्थक बनाता ह" यहाँ पर भी उत्किरणक्रियान्वितकाष्ठ "प्रस्थक" नहीं है, तथापि “प्रस्थक" शब्द का जो वहाँ प्रयोग होता है, वह उपचार से ही होता है, इसलिए इसमें भी अशुद्धि है, तो भी तक्षणक्रियायुक्तकाष्ठ में जो "प्रस्थक" शब्द का प्रयोग होता है, उस की अपेक्षया इस में विशुद्धता है, क्योंकि "प्रस्थक” तैयार करने में तक्षण क्रियायुक्तकाष्ठ की अपेक्षा से उत्किरणक्रियान्वित काष्ठ सन्निकृष्ट है । यह नैगम का चतुर्थ भेद है।
"उत्किरण" क्रिया द्वारा काष्ठखण्ड जब सावकाश बन जाता है तब उस में रहे हए उच्चावच्चभाव को निकालकर "समीकरण" करना आवश्यक होता है, उस समीकरणक्रिया को ही "लेखन' कहते हैं। "लेखन" क्रिया के बाद "प्रस्थक" का आकार बन जाता है उस समय लेखनकर्ता पुरुष को पूछा जाय कि 'क्या करते हो ?' तो वह भी यही जवाब देता है कि "प्रस्थक बनाता हूँ।" लेखन क्रियाकाल में भी वह शुषिरयुक्त काष्ठखण्ड वास्तविक "प्रस्थक” नहीं है, क्योंकि अन्य साधनों से धान्यादि द्रव्यों का माप करके उस काष्ठ खण्ड में रखा जाय और उन परिमित धान्यादि का वहाँ समावेश हो जाय और वह धान्यादि द्रव्य न न्यून हो, न अधिक हो, तब वह शुषिर दारुखण्ड वास्तविक "प्रस्थक" होगा, अभी तो वह दारुखण्ड जो "प्रस्थक" शब्द से कहा जाता है, वह तो उपचार से ही कहा जाता है। इसलिए इस में भी अशुद्धि है, परन्तु "उत्किरण” क्रिया विशिष्ट “काष्ठ" की अपेक्षा से लेखनक्रियान्वितकाष्ठ "प्रस्थक" भाव बनने में सन्निकृष्ट होने के कारण विशुद्धि भी है। यह "नंगम" का पञ्चम भेद फलित होता है।