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नयरहस्ये प्रदेशदृष्टान्तः
[ भेद होने पर भी सम्बन्ध की उत्पत्ति ओमकार यदि यह शंका उठायी जाय कि-"धर्मादि और उन के देशप्रदेश की सत्ता नहीं है' इस मान्यता में हेतुरूप से आप यह बताते हैं कि धर्मादि और उन के देशप्रदेशों में यदि भेद माना जाय तो धर्मादि का देश और प्रदेश के साथ सम्बन्ध नहीं होगा । परन्तु यह कहना असंगत है क्योंकि भेद होने पर भी सम्बन्ध रहता है, ऐसा देखने में आता है। जसे-विन्ध्य पर्वत आकाश के अमुक प्रदेशावच्छेदेन रहता है और हिमालय तद्भिन्न आकाशप्रदेशावच्छेदेन रहता है तथा आकाश के यत्प्रदेशावच्छेदेन विन्ध्य रहता है, तद्भिन्नप्रदेशावच्छेदेन विन्ध्य का अभाव रहता है। एवं आकाश के यत्प्रदेशावच्छेदेन हिमालय रहता है, तदृभिन्नप्रदेशावच्छेदेन हिमालय का अभाव रहता है। इस तरह विन्ध्य और हिमालयरूप भाव पदार्थ का अवच्छेदक आकाश प्रदेश माना जाता है। एवं विन्ध्याभाव और हिमालयाभावरूप अभाव पदार्थ का भी अवच्छेदक आकाशप्रदेश माना जाता है । यदि आकाश के प्रदेश आकाश के साथ सम्बन्ध न रखते हो तो आकाश वृत्ति विन्ध्य-हिमालय एवं विन्ध्याभाव और हिमालयाभाव के अवच्छेदक न बन सकेगे । इस से यह सिद्ध होता है कि भेद रहने पर भी आकाश और उस के देश-प्रदेशों का सम्बन्ध अवश्य है । तब उसी तरह धर्मादि और उन के देश-प्रदेशों का सम्बन्ध सिद्ध हो जायगा। तब तो 'धर्मादि के देशप्रदेश की सिद्धि भी हो जायगी। तब 'देशप्रदेशरहित अखण्डवस्तु का ही कथन करना चाहिए' यह “एवम्भूतनय” की मान्यता ठीक नहीं जचती ।"
[ आकाश और विन्ध्यादि में कोइ वास्तव संबन्ध नहीं है-उत्तर ] इस आशंका का समाधान उपाध्यायजी इस तरह से देते हैं कि आकाशादि के साथ विन्ध्यादि का सम्बन्ध ही नहीं माना जाता है, कारण विन्ध्यादि सभी वस्तु अपने में ही अवस्थित हैं। तब जो आकाश के अमुकप्रदेशावच्छेदेन विन्ध्य की वृत्तिता प्रतीत होती है, वह काल्पनिक है, क्योंकि काल्पनिक सम्बन्ध को लेकर ही वैसी प्रतीति होती है। वास्तव सम्बन्ध तो एवम्भूतनय के मत से दो ही हैं-"तादात्म्य और तदुत्पत्ति"। आकाशादि के साथ विन्ध्यादि पदार्थो का तादात्म्य सम्बन्ध तो है नहीं क्योंकि विन्ध्य और आकाश भिन्नरूप से सर्वानुभवसिद्ध है। आकाश और विन्ध्य वगैरह पदार्थों में "तदुत्पत्ति” शब्द से अभिप्रेत कार्यकारण भावरूप सम्बन्ध भी नहीं है क्योंकि विन्ध्य आकाश का न कारण है-न कार्य है। एवं आकाश भी विन्ध्य का न कारण है-न कार्य है। तब तो विन्ध्य-हिमालय और विन्ध्याभाव-हिमालयाभाव में आकाशनिरूपित वृत्तिता ही नहीं है। इसलिए विन्ध्य हिमालयआदिनिष्ठवृत्तितावच्छेदकतया अथवा विन्ध्य. हिमालयादिअवच्छेदकतया आकाशादि के देश की सिद्धि नहीं हो सकती है। यह “एवम्भूतनय" की मान्यता का समर्थन करने की एक रीति है, और भी अनेक युक्तियाँ हो सकती है- इस वस्तु को “दिक” (=दिशा) पद के प्रयोग से 'उपाध्यायजी ने सूचित किया है। [ प्रदेशदृष्टान्त समाप्त ]