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उपा. यशोविजय रचित
अप्रामाणिक होने से देश-प्रदेश की कल्पना से रहित अखण्ड वस्तु ही वाक्य से प्रतिपाच होती है अर्थात् अखण्डवस्तु का बोध ही वाक्य से होता है, यही मान्यता एवम्भूतनय की है। इसलिए 'धर्म है-अधर्म है। इसी तरह के वाक्य का प्रयोग उसके मत में करना चाहिए । देश और प्रदेश को जो एवम्भृत नहीं मानता है, उस की समर्थक युक्ति यह है कि धर्मादि का देश और प्रदेश यदि माना जाय तो, वह देश और प्रदेश धर्मादि से भिन्न होगा या अभिन्न होगा ऐसा विकल्प उठेगा ही। उस में भेदपक्ष युक्त नहीं है क्योंकि धर्मादि और उनके देश प्रदेशों में यदि परस्पर भेद होगा तो यह धर्मसम्बन्धित देश है-यह धर्मसम्बन्धी प्रदेश है, इस तरह के वाक्यप्रयोगों में जो सम्बन्ध भासित होता है, वह न होना चाहिए क्योंकि भिन्नवस्तुओं का परस्प होता है। जैसे- घट और पट परस्पर भिन्न होने से घट का सम्बन्ध पट में नहीं होता है, और पट का सम्बन्ध घट में नहीं होता है, वसे ही धर्मादि को देश-प्रदेश के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता है ।
[ तादात्म्य और तदुत्पत्ति से अतिरिक्त सम्बन्ध का अभाव ] ____ यहाँ यह आशंका की जाय कि-"घट-पट का परस्पर भेद होने पर भी संयोग आदि अनेक प्रकार के सम्बन्ध परस्पर में हो सकते हैं। वसे ही धर्मादि का देश-प्रदेश के साथ भी अनेक सम्बन्ध हो सकते हैं । तब 'भेद रहने पर सम्बन्ध नहीं हो सकता है' ऐसा कहना अयुक्त है"-इस आशंका का समाधान 'तादात्म्यतदुत्पनेरन्यतरानुपपत्तेः' इस अग्रिम पंक्ति से यहाँ भी सूचित हो जाता है। आशय यह है कि एवम्भूत दो ही प्रकार का सम्बन्ध मानता है, तादात्म्य और तदुत्पत्ति । यहाँ “तादात्म्य" शब्द से अभेद सम्बन्ध विवक्षित है । घट-पट में परस्पर भेद होने से अभेदरूप "तादात्म्य" सम्बन्ध हो नहीं सकता है क्योंकि अभेद का विरोधी भेद वहाँ अवस्थित है। दूसरी ओर घटपट में जन्यजनकभाव तो है ही नहीं, क्योंकि घट न तो पट का जनक हैं और न जन्य है । उसी तरह पट भी न घट का जन्य है, न जनक है। इसी तरह से धर्मादि और देश-प्रदेशों में भेद रहने पर अभेदरूप तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हो सकता है और जन्यजनकभाव सम्बन्ध तो है ही नहीं। दूसरी बात यह है कि धर्मादि और उन के देशप्रदेशों में परस्पर भेद होने पर भी देश और प्रदेश के साथ धर्मादि का सम्बन्ध यदि माना जाय तो धर्मभिन्नत्व जैसे धर्मास्तिकाय के प्रदेशों में है, वैसे ही अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों में भी है, तो अधर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है वह धर्म का प्रदेश है और धर्मास्तिकाय का जो प्रदेश है वह अधर्मास्तिकाय का प्रदेश है-इस तरह अन्यदीय प्रदेश में भी अन्यदीय प्रदेशत्व का व्यवहार हो जायगा क्योंकि भेद होने पर भी सम्बन्ध का स्वीकार किया है। इसलिए भेदपक्ष युक्त नहीं है। यदि "धर्मादि के देश-प्रदेश धर्मादि से अभिन्न है" यह द्वितीय पक्ष माना जाय तो यह भी अयुक्त है। कारण, जिस को जिस के साथ अभेद होता है, उन दोनों का सह प्रयोग अर्थात-एक साथ प्रयोग नहीं होता है, जैसे-घट के साथ घट का अभेद है तो घट घट' ऐसा सहप्रयोग नहीं होता तात्पर्य 'धर्म देश है, धर्म प्रदेश है' ऐसा प्रयोग नहीं हो सकेगा। इसलिए अखण्ड वस्तु का ही कथन युक्त है।