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उपा. यशोविजयरचिते वस्तुतो 'वसन्नेव वसती'ति व्यवहारेणाऽप्यभ्युपगमात् , अन्यथा 'नाद्य सोत्र वसती'ति व्यवहारो न स्यात् । व्यवहारबलवत्त्वाऽबलवत्त्वे त्वभ्यासानभ्यासाधीने इति नात्र निर्बलत्वाऽऽशङ्कापि युक्तेति दिक् ॥
सङ्ग्रहस्तु संस्तारकारूढ एव 'वसती'त्यभ्युपैति, अन्यत्र हि वासार्थ एव तस्य न घटते । न चायं प्राग्वदुपचारमप्याश्रयते । अत एव 'मूले वृक्षः कपिसंयोगी'त्यत्राप्येतन्मते 'मलाभिन्नो वृक्षः कपिसंयोगी'त्येवार्थ इति दिक् ॥
("वस्तुतो" इत्यादि -) वास्तव में तो सर्व विशुद्ध नैगम विशेष की भाँति व्यवहारनय में भी चैत्रादि जब पाटलिपुत्रादि क्षेत्र में जिस स्थल में जिस काल में वास करता है, उसी काल में 'यहाँ यह वसता है ऐसा व्यवहार मान्य है और यही व्यवहार मुख्य है। निवासकाल में ही 'यहाँ यह बसता है ऐसा व्यवहार यदि व्यवहारनय को मान्य न हो तो वह आज यहाँ नहीं बसता है' ऐसा व्यवहार जो होता है वह उपपन्न नहीं होगा। वासकाल में ही विसति' यह व्यवहार मान्य कर लेने से जब चत्र कार्यवशात् कहीं अन्यत्र गया हो तब 'आज वह यहाँ नहीं बसता है ऐसा व्यवहार होने में कोई बाधक नहीं होता है । यदि कहे कि-'प्रयागादि अन्यस्थानगत चैत्रादि में जो 'यह पाटलिपुत्र का वासी है ऐसा व्यवहार होता है वही बाधक होगा। इसलिए 'वह आज यहाँ नहीं बसता है' यह व्यवहार न होना ही उचित है'-तो यह ठाक नहीं है क्योंकि बाध्यबाधकभाव वहाँ होता है जहाँ एक दुर्बल और दूसरा प्रबल हो । व्यवहार में जो दुर्बलता और प्रबलता होती है वह व्यवहार की अल्पता और अधिकता प्रयुक्त ही होती है । व्यवहारा ल्पता को ही शास्त्रकार “अनभ्यास" शब्द से संबोधित करते हैं और व्यवहार का जो आधिक्य उसे अभ्यास शब्द से संबोधित करते हैं। यहाँ दोनों व्यवहार प्रचुरतया लोक में पाए जाते हैं । इसलिए कोई भी दुर्बल अथवा प्रबल नहीं है । अतः 'वह आज यहाँ नहीं वसता है' इस व्यवहार में दुर्बलता की आकांक्षा करना युक्त नहीं है।
[ वसति के दृष्टान्त में संग्रहनय का अभिप्राय ] ("संग्रहस्तु" इत्यादि) संग्रहनय के मत से संस्तारक पर आरूढ अर्थात् गृहस्थित बिछौने पर देवदत्त जिस काल में बौठा हो उस स्थिति में ही देवदत्त में 'वसति' शब्द का प्रयोग होना स्वीकार्य है । जो संस्तारक पर बैठा नहीं है. ऐसे-देवदत्त में 'वास' शब्दार्थ ही नहीं घटता है । 'वास' शब्द का अर्थ आधारता है । वह आधारता आधेयता से नित्य साकांक्ष होती है । इसलिए गृहवृत्ति आधारता देवदत्तादिवृत्ति आधेयता से निरूपित होती है । देवदत्तादिवृत्ति आधेयता भी आधारता में सदा साकांक्ष रहती है, इसलिर वह भी गृहवृत्ति आधारता से निरूपित होती है । इसी हेतु से गृह और देवदत्त में अधाराधेयभाव सिद्ध होता है । देवदत्तादि में गृहाधेयत्व ही 'वास' शब्द का अर्थ है । वह संस्तारकारूढ देवदत्तादि में ही घटता है, जो संस्तारकारूढ नहीं है, ऐसे पुरुष में गृहाधेयत्व सम्भव नहीं है, यह संग्रह नय का अभिप्राय है । शङ्काः- नैगम