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उपा. यशोविजयरचिते
लब्ध होता है वह तदुरूप होता है । इस नियम के अनुसार उपयोग के साथ उपलभ्य मान होने से बाह्यप्रस्थक उपयोगरूप ही है ऐसा नियम मानकर उक्त समाधान दिया गया है, इस में कोई अमंगति नहीं है । यहाँ एक दूसरी आपत्ति खडी हो सकती है कि 'जिस के साथ जो उपलब्ध हो वह यदि तदरूप माना जाय तो बाह्यप्रस्थक के जैसे बाह्य घटपटादि भी उपयोगरूप हो जायेगे । कारण, घटादि भी अपने उपयोग के समय में ही उपलब्ध होते हैं, तो उनकी भी उपयोगरूपता क्यों न होगी?' परन्तु इस आपत्ति को स्वीकार कर लेने में भी कोई हानि इन नयों को नहीं है, अपितु इष्टापत्ति है, अत एव वे घटादि को ज्ञानरूप मान लेते हैं, कारण, ये तीनों नय आखिर तो ज्ञानात नय में अनुप्रविष्ट हैं।
[ ज्ञानात्मक-अज्ञानात्मक उभयरूपता का समावेश अविरुद्ध ] (" न च ज्ञानाज्ञानात्मकत्व") शंकाः- ग्रन्थकार ने “अनतिरेकाश्रयणात्" इस ग्रन्थांश में आश्रयण पद का प्रयोग किया है और उस के बाद “अन्ततः” पद का भी प्रयोग किया है, इन दोनों पदों के प्रयोग से यह आशय अभिव्यक्त होता है कि बाह्यप्रस्थक प्रस्तुत तीनों नयों को ज्ञानात्मक अभिमत नहीं है, और 'ज्ञानाद्वैत नय” के मत से बाह्यप्रस्थक ज्ञानात्मक सिद्ध होता है। तब बाह्यप्रस्थक नयद्वय का विषयीभूत अर्थ सिद्ध होता है। किन्तु ज्ञानात्मक और अज्ञानात्मक, एतत् उभय विषयकत्व किसी एक नय में विरोध होने के कारण समाविष्ट नहीं है। तब तो बाह्यप्रस्थक जिस नय के मत से ज्ञानात्मक है उस नय में नयत्व नहीं आयेगा और जिस नय के मत से बाह्यप्रस्थक अज्ञानात्मक है उस नय में भी नयत्व के अभाव का प्रसंग होगा, कारण, ज्ञानात्मक और अज्ञानात्मक एतत् उभयविषयकत्व किसी भी नय को मान्य नहीं है ।
समाधान :-ज्ञानात्मक और अज्ञानात्मक एतत् उभयरूप विषय का तादात्म्य सम्बन्ध से अर्थात् अभेद सम्बन्ध से किसी एक नय में समावेश यद्यपि नहीं हो सकता है तथापि विषयता और तादात्म्य इन सम्बन्धों के उभयरूप का समावेश प्रत्येक नय में हो सकता है । तात्पर्य जिस नय को बाह्यप्रस्थक में ज्ञानात्मकता अभिमत है उस नय के मत से ज्ञान
और विषय का तादात्म्य सम्बन्ध माना जाता है । तब उस नय की दृष्टि से ज्ञानात्मकता सिद्ध होती है और वह नय ज्ञानात्मक बाह्यप्रस्थक का ग्राही होता है, अज्ञानात्मक बाह्य प्रस्थक का ग्राहक नहीं होता है। इसलिए एकाकार विषयग्राहिता होने के कारण उस में नयत्व होने में कोई आपत्ति नहीं आती है। ऐसा नय "ज्ञानाद्वैत" नय कहा जाता है। तथा-जिस नय की दृष्टि से बाह्यप्रस्थक में अज्ञानात्मकता (जडता) मानी जाती है उस नय की दृष्टि से ज्ञान का विषय के साथ 'स्वनिरूपितविषयता' ही सम्बन्ध है। इस हेतु से बाह्यप्रस्थक में अज्ञानात्मकत्व उस नय की दृष्टि से सिद्ध होता है और वह नय अज्ञानात्मकविषयग्राही होने से नय भी हो सकता है। इस तरह सम्बन्धभेद से उभयरूप विषय का एक नय में समावेश हो सकता है और नयत्व में कोई बाधा भी उपस्थित नहीं होती है।
("विषयत्वमपि')-यदि शंका की जाय कि-"किसी नयविशेष की मान्यता के अनुसार विषय के साथ जो ज्ञान का विषयत्व सम्बन्ध है, वह तादात्म्यरूप ही है।