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नयरहस्ये वसतिदृष्टान्तः प्रयोगे "क्व" इत्याद्याकांक्षाबाहुल्याऽबाहुल्यकृतं विशुद्धय विशुद्धिवैचित्र्यम् । अत एव 'वसन् वसती'ति प्रयोगस्य व्युपरताकांक्षत्वात् सर्वविशुद्धनैगमभेदत्वम्-इत्यपि वदन्ति । तो फिर यहाँ उपचार मानने की क्या आवश्यकता है ?'-तो यह आशंका भी तत्त्वदृष्टि से विचार करने पर सङ्गत नहीं है। कारण, वृक्ष पदार्थ में जब तक शाखा रूप देश का आरोप न किया जाय अर्थात् उपचार नहीं होगा तब तक वृक्ष पदार्थ में विशेषणीभूत समग्रता का विनिमंकि भी कैसे हो सकेगा? इसलिए उपचार भानना आवश्यक है। ___यदि यह कहा जाय कि-'वृक्षपद की शक्ति से कात्स्य का विनिक उपचार के बिना भी हो सकता है।'-तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वृक्षपद की शक्ति से समग्रता का ग्रहण न होने पर वृक्षपद स्कन्धमात्र का बोधक होगा । स्कन्ध यह वृक्ष का जो एकत्व परिणाम, तदुरूप ही है और वही वृक्षपदार्थ है। इस दशा में वह स्कन्ध वृक्ष का एकदेश है अर्थात् अवयव है। अवयव अवयवी के बिना नहीं हो सकता है । समुदायएकदेश का समुदाय के बिना होना सम्भवित नहीं है। इसलिए स्कन्ध रूप पदार्थ से ही देशसमदायरूपकात्स्न्य का उपग्रह हो जायगा। अतः उपचार आव श्यक है । यदि यह कहा जाय कि-"वृक्षपद का अर्थ हम अखण्ड वृक्ष ही मानते हैं, स्कन्ध-शाखादि भेद वृक्ष के अर्थ में प्रविष्ट नहीं मानते हैं । तब स्कन्धरूप एकदेश वृक्षपद का अर्थ न होगा और स्कन्धरूप एकदेश से समुदायरूप कात्स्य का आक्षेप नहीं होगा । तब तो कात्स्य का विनिर्मोक स्वतः सिद्ध हो जाता है । इस स्थिति में कपिसंयोग के साथ अन्धय होने में बाधा नहीं दीखती है, उपचार मानना आवश्यक नहीं है ।" -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि भेदविनिर्मुक्त 'अखण्ड वृक्ष' वृक्षपद का अर्थ है ऐसा मानने में अनुभव का वाध आता है । मूल शाखादि भेदों से युक्त अवयवी वृक्ष का बोध वृक्षपद सुनने के बाद होता है, इस तरह का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति को है। ऐसा अनुभव होने पर अनुभवविरुद्ध 'अखण्डवृक्ष वृक्ष पद का अर्थ है' ऐसा नहीं माना जा सकता । अतः “वृक्षे कपिसंयोगः" यहाँ पर भी उपचार माने बिना अन्वय सम्भवित नहीं है । इसलिए उपचार मानना आवश्यक ही है।
[ 'कहाँ ?' ऐसी आकांक्षा के अल्पबहुत्व से विशुद्धि वैचित्र्य-अन्य मत ] ('प्रयोगे "क्व" इत्यादि -) अन्य विद्वानों का विशुद्धितरतमता के बारे में यह मत है कि "लोके वसति" "तिर्यग्लोके वसति" इत्यादि पूर्व कथित प्रयोगों में विशुद्धि का तारतम्य धर्म भेद से विभिन्न तत्तत् क्षेत्रों में गृहकोण क्षेत्र का अभेदारोप कर के बताया गया है । अब दूसरे प्रकार से भी तारतम्य का उपपादन हो सकता है, इस अभिप्राय से प्रकृत ग्रन्थ की प्रवृत्ति हुई है । वह दूसरा प्रकार यह है कि 'कहाँ ?' ऐसी आकांक्षा का बाहुल्य यानी अधिकता जिस प्रयोग में हो उस प्रयोग में अधिक अविशुद्धि होती है। जिसमें उक्त आकांक्षा का अबाहुल्य अर्थात् न्यूनता हो उस प्रयोग में विशुद्धि होती है। यह विशुद्धि अपेक्षाकृत है । जैसे-'लोके वसति' इस