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उपा. यशोविजय रचित
प्रस्थको मगधदेशप्रसिद्धो धान्यमानविशेषः, तदर्थं वनगमनदारुच्छेद नतक्षणोकिरण लेखनप्रस्थ पर्यायाविर्भावेषु यथोत्तरशुद्धा नैगमभेदाः । अतिशुद्धनैगमस्त्वाssकुट्टितनामानं प्रस्थकमाह । व्यवहारेऽप्ययमेव पन्थाः ॥
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[ प्रस्थक के दृष्टान्त में सात नयों का अभिगम ]
“प्रस्थको मगध०" इत्यादि - प्रदेश दृष्टान्त के द्वारा नैगमादि नयों में पूर्वपूर्वनय की अपेक्षा से उत्तरोत्तर नय विशुद्धियुक्त हैं, इस वस्तु का विवेचन करके अब 'उपाध्यायजी ' “प्रस्थक" दृष्टान्त के द्वारा पूर्व - पूर्वनय की अपेक्षा से उत्तरोत्तर नय में जिस रीति से विशुद्धि आती उस रीति का विवेचन प्रस्तुत करते हैं-मगधदेश में प्रसिद्ध धान्य मापने के पात्रविशेष को “प्रस्थक" कहते हैं । आयुर्वेद ग्रन्थों में औषधि के माप को "प्रस्थ " शब्द से कहा गया है और औषधि के मापने का साधन भी " प्रस्थ " शब्द से कहा गया है । इसलिए "प्रस्थ" शब्द का अर्थ 'मापने का साधनविशेष' करना उचित हा है और उस से परिच्छिन्न या परिमित अर्थात् मापा हुआ धान्यादि वस्तुविशेष भी प्रस्थ कहा जाता है । फर्क इतना ही है कि “चरक" सुश्रुत वगैरह प्राचीन ग्रन्थों में “प्रस्थ " शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है और अनुयोगद्वारादि प्राचीन ग्रन्थों में “प्रस्थक" शब्द का प्रयोग है । " प्रस्थ शब्द से स्वार्थ में "क " प्रत्यय लगाने पर " प्रस्थक" शब्द बनता है । इसलिए “प्रस्थ" और "प्रस्थक" इन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही होता है । यह "प्रस्थक" काष्ठनिर्मित होता है । पाषाण या धातुओं के द्वारा निर्मित "प्रस्थक" की अपेक्षा काष्ठनिर्मित " प्रस्थक" सुलभ होने के कारण वह कोई समय में अधिक प्रसिद्ध रहा होगा, इसलिए काष्ठनिर्मित “प्रस्थक" को ही दृष्टान्त रूप से यहाँ ग्रहण किया है । [ नैगमनय का प्रस्थक के लिये विविध अभिप्राय ]
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"प्रस्थक" के लिए काष्ठ लाने के निमित्त कोई पुरुष वन में जाता है, उस दशा में यदि उसे पूछा जाय कि क्या कर रहे हो ? तो उसको वह ऐसा ही जवाब देता है कि 'प्रस्थक लाने के लिए जाता हूँ' । यद्यपि वह प्रस्थकयोग्य काष्ठ को लाने के लिए वनगमन कर रहा है तो भी उत्तर तो यही देता है कि "मैं प्रस्थक लाने के लिए जाता हूँ” । यहाँ वनस्थकाष्ठ “प्रस्थक" रूप यद्यपि नहीं है तथापि उस काष्ठ में भाविप्रस्थकभाव का आरोप करके वह पूर्वोक्त उत्तर देता है । इसलिए नैगमनय में काष्ठ में 'प्रस्थक' के अभिप्रायरूप अशुद्धता है । जहाँ आरोप या उपचार का सम्बन्ध रहता है, ऐसे अभिप्राय को विशुद्ध न मानकर अशुद्ध ही मानना युक्त है । "नय" भी 'अभिप्रायविशेष ही है' ऐसा "नय लक्षण के प्रस्ताव में कहा जा चुका है । वनस्थकाष्ठ का पर्यायविशेष ही "प्रस्थक" हैं । इस में अशुद्धि किस तरह आती है इस को बताकर इस की अपेक्षा विशुद्धियुक्त " नैगम" के भेद “ दारुछेदन०" शब्द से प्रदर्शित किया जाता है । "प्रस्थक" के लिए काष्ठ का छेदन करते हुए पुरुष को यदि पूछा जाय कि 'तुम क्या करते हो ?' तो वह यही उत्तर देता है कि मैं “प्रस्थक" करता हूँ । यह अभिप्राय भी विशुद्ध तो नहीं है क्योंकि दारुछेदन तो “प्रस्थक" नहीं है किन्तु 'छिद्यमान काष्ठ' में प्रस्थकत्व का
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