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उपा. यशोविजय रचित अत एव शबलरूपत्वे कथमेकतरप्रतिपत्तिरिति परास्तम् । सन्निकर्प विप्रकपादिवशात् यथाक्षयोपशमं द्रव्यपर्यायप्रधानभावेनार्थन्यायाद्भावेनाप्रधानगुणभूतेऽपि वस्तुनि सत्ववटवादिप्रतिपत्तेः। तदिदमुक्तम्-''अर्पितानर्पितसिद्धेः' (तत्वार्थ ५-३१) इति । अधिकं त्रिसूत्र्यालोके । पर बहुवचन का प्रयोग होता है, एसा समाधान जो आपने दिया है वह तो ठीक है, क्योंकि ये दोनों प्रकार के प्रयोग कादाचित्क होते हैं। परन्तु जहाँ किसी व्यक्ति को द्रव्य और पर्याय इन दोनों में उद्भूतत्व विवक्षा होगी, वहाँ एकवचन या बहुवचन इन दोनों में से किस का प्रयोग होगा ?" -इस शंका का समाधान “तदा भवतु" इत्यादि पंक्ति से दिया जाता है कि “घट” द्रव्य है और घटीयरूपरसादि घट के पर्याय हैं और द्रव्य पर्यायों का सम्बन्ध जैनदर्शन के अनुसार कथंचितूतादात्म्यरूप माना गया है । इसलिए वस्तु द्रव्य-पर्याय उभयात्मक होती है, ऐसा स्याद्वादियों का सिद्धान्त है। अत: जहाँ द्रव्य और पर्याय इन दोनों में उदभृतत्व की विवक्षा होती है, वहाँ द्रव्यापेक्षया वस्तु में एकवचन का प्रयोग और पर्यायापेक्षया बहुवचन का प्रयोग एक ही काल में होता ही है । जैसे- “घटस्य रूपादयः" ऐसा प्रयोग एककाल में ही होता है। यहाँ घटरूप द्रव्य में उदभृतत्व की विवक्षा होने से घटशब्द से एकवचन विभक्ति आई है और उस घटद्रव्य से सम्बद्ध कथञ्चित् तादात्म्यापन्न रूपादि पर्यायवाचक रूपादि शब्द से पर्याय में उतत्व विवक्षा होने से बहुवचन विभक्ति भी प्रयुक्त हुई है। अत एव एकवचन और बहुवचन दोनों का प्रयोग एक काल में एक वस्तु के लिए जैन सिद्धान्त में युक्तियुक्त ही है।
[विवक्षाद से विवक्षितधर्म की नियत प्रतिपत्ति] "अत एवे"त्यादि-विवक्षाभेद से कहीं एकवचन का प्रयोग, कहीं बहुवचन का प्रयोग कहीं एककाल में ही एकवचन-बहुवचन दोनों का प्रयोग जैसे युक्तियुक्त होते हैं, वसे विवक्षाभेद से ही अनन्तधर्मात्मक वस्तु होने पर भी कहीं एक वस्तु की, कहीं अनेक वस्तु की प्रतिपत्ति होती है। तब जो किसी ने यह शंका उठाई है कि- “वस्तु यदि शबलरूप मानी जाय अर्थात् अनन्त धर्मात्मक मानी जाय तो घटादि शब्द के प्रयोग से घटादिगत भेदाऽभेद, नित्यत्व-अनित्यत्व, सत्त्व असत्त्व वगैरह सभी धर्मों की प्रतीति होनी चाहिए, किन्तु घटादि शब्द के प्रयोग होने पर होती नहीं है। इसीलिए वस्तु को शबलरूप अर्थात् अनन्तधर्मात्मक मानना उचित नहीं है - इस आशंका का समाधान विवक्षाभेद स्वीकार करने से हो जाता है। जिस धर्म की विवक्षा रहेगी, उसी धर्म की प्रतीति घटादि शब्दों के श्रवण होने पर होगी। अविवक्षित धर्मों की प्रतीति नहीं होगी इस तरह एकतर की प्रतिपत्ति होने में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती है। इसी वस्तु का प्रतिपादन 'सन्निकर्षविप्रकर्षादिवशात इत्यादि ग्रन्थ से स्वय उपाध्यायजी करते हैं ।
इस ग्रन्थ का आशय यह है कि वस्तुमात्र अनन्तधर्मात्मक है और उन अनन्तधर्मी का कथञ्चित् तादात्म्यरूप सम्बन्ध उस वस्तुरूप धर्मी में सदा रहता ही है । "कथञ्चित