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नयरहस्ये दुर्नयत्वविमर्शः
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आद्यस्य चत्वारो भेदाः, “नैगमः, सङ्ग्रहो, व्यवहारः, ऋजुसूत्रश्चेति" जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतयः । ऋजुसूत्रो यदि द्रव्यं नाभ्युपेयात्तदा 'उज्जुसुअस्स एगे अणुवत् एगं दव्वावस्सयं पुहुत्तं णेच्छइ' ति [अनु० द्वार - सू० १४ ] सूत्रं विरुध्येत ॥
[' प्राधान्य' सूचक होने से, मात्र पद
दुर्नयत्व की आपत्ति नहीं - उत्तर ]
इस आशंका का समाधान "तत्प्रतिक्षेपस्येत्यादि ग्रन्थ से दिया जाता है कि घट अनित्य ही है, ऐसा तार्किकों का जो मन्तव्य है, उसमें नित्यत्व का गौणरूप से स्वीकार नहीं है, किन्तु प्रतिक्षेप ही है । इसलिए तार्किकों का अभ्युपगम भले ही दुर्नय हो परन्तु स्याद्वादी का अभ्युपगम दुर्नय नहीं है क्योंकि द्रव्यार्थिक नय के लक्षण में 'मात्र ' पद से जो पर्यायांश का प्रतिक्षेप आपाततः प्रतीत होता है वह वस्तुतः पर्यायों का प्रतिषेध नहीं है, किन्तु द्रव्यार्थिक नय द्वारा द्रव्य का मुख्यरूप से अभ्युपगम दर्शाने में ही ' मात्र' पद का तात्पर्य है । पर्यायों का प्रधानरूप से वह स्वीकार नहीं करता है । इस से यह सिद्ध नहीं होता है कि पर्याय को मानता ही नहीं है, किन्तु सिद्ध यह होता है कि गौणरूप से पर्याय का भी स्वीकार करता है । इसलिए नय का लक्षण संगत होने में कोई बाधा नहीं होती है । अत एव दुर्नयत्व की आपत्ति भी नहीं है । यही स्थिति पर्यायार्थिक नय की भी है, उस में भी 'मात्र' पद से द्रव्यांश का प्रतिक्षेप नहीं किया जाता है, किन्तु पर्यायांश में प्राधान्य को वह नय मानता है और द्रव्य को भी गौणरूप से मानता ही है । लक्षण में प्रविष्ट 'मात्र' पद का द्रव्यप्रतिक्षेप में तात्पर्य नहीं है, किन्तु . पर्यायांश के प्राधान्य में तात्पर्य है । इसलिए नय का लक्षण भी संगत हो जाता है । इस कारण से मात्र पद के प्रवेश होने पर भी द्रव्यार्थिक या पर्यायार्थिक नय में दुर्नयत्व की आपत्ति नहीं आती है ।
" एतद्विषय: " = इस विषय का विचार विस्तृत रूप से ग्रन्थान्तर में किया गया है । इस ग्रन्थ में भी यदि इस विषय का विस्तृत विचार कर दिया जाय तो, यह एक दूसरा ही ग्रन्थ बन जायगा, सो न हो इसलिए यहाँ विस्तृत विचार का समावेश नहीं किया गया है । यह ग्रन्थ तो “नयरहस्य" ग्रन्थ है । इस में नयों के रहस्यार्थो का वर्णन मात्र ही अभिप्रेत है-अति विस्तार नहीं ।
[ ऋजुसूत्र के साथ द्रव्यार्थिक के चार भेद - जिनभद्रगणी आदि ]
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“आद्यस्ये” त्यादि - " द्रव्यार्थिकनय " के नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार भेद माने गये हैं - यह मत जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण आदि प्राचीन आचार्य का है । ऋजुसूत्र का द्रव्यार्थिक नय में अन्तर्भाव यदि नहीं किया जाय तो " उज्जुसुअस्स० इत्यादि सूत्र का विरोध आता है । इस सूत्र का पाठ “अनुयोग द्वार" ग्रन्थ में “उज्जुसुअस्स एगो अणुवउत्तो आगमतो एगं दवावस्सयं पुहुत्त णेच्छा" ऐसा दिया गया है। ऋजुसूत्र वर्त्तमानकाल भावि वस्तु को ही स्वीकार करता है, अतीत वस्तु को नहीं मानता
* ऋजुसूत्रस्य एकोऽनुपयुक्त एक द्रव्यावश्यकं, पृथक्वं नेच्छति । [ द्रष्टव्य-अनुयोगद्वार सूत्र १४]