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नयरहस्ये प्रदेशदृष्टान्तः
करने पर पञ्चत्वप्रकारकबुद्धि का आकार 'पञ्चत्वसंख्यावान् प्रदेश है' एसा होगा क्योंकि इस बुद्धि में प्रदेश विशेष्य रूप से भासित होता है और पञ्चत्वसंख्या प्रकार रूप से भासित होती है। अब प्रदेश पाँच प्रकार का है इसका अर्थ यह हुआ कि 'प्रदेश पञ्चत्वसंख्यावान् है क्योंकि 'वह पंचत्वप्रकारकबुद्धिविषयतावान है', एसा कहने पर 'पञ्च त्वसंख्यावान् प्रदेश है' यही अर्थ निकलता है जो संगत नहीं है, क्योंकि प्रत्येक प्रदेशव्यक्ति में पञ्चत्वसंख्या न होने से पश्चत्वप्रकारवृद्धिविषयत्व का अभाव सिद्ध होता है। तब पाँचों प्रदेशों में पञ्चत्वप्रकारक बुद्धिविषयत्वरूप पश्चविधत्व का अन्वय नहीं हो सकता है।
यदि यहाँ बचाव किया जाय कि-"गृहों में सौ (१००) अश्व हैं' ऐसा वाक्यप्रयोग होता है । अश्व तो एक घर में सभी नहीं हैं, तथा अनेक गृहों में एक अश्व भी नहीं है किन्तु एक गृह में एक अश्व है, दूसरे गृह में दूसरा अश्व है, इस तरह अन्य अन्य (१००) गृहों में अन्य अन्य (१००) अश्व हैं। इस तरह से शतसंख्यक अश्व का अनेक गृहों के साथ सम्बन्ध रहता है, इस रीति से 'गृहों में १०० अश्व हैं' यह वाक्यप्रयोग जैसे होता है, उसी तरह प्रत्येक प्रदेश में प्रत्येकधर्मप्रकारकबुद्धिविषयता रहने पर पांचों प्रदेशों में पञ्चप्रकारकवुद्धिविषयत्व रहेगा, तब 'पाँच प्रकार का प्रदेश है' ऐसा प्रयोग होने में कोई बाधा नहीं दिखती है ।" तो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्येक प्रत्येकधर्मप्रकारकबुद्धिविषयत्वं'-यहाँ प्रत्येक पद से प्रदेश सामान्य का ग्रहण किया जाय तब “प्रदेश" पद से अनन्त प्रदेशों की उपस्थिति होगी। उनमें से किसी पाँच प्रदेशों में एक एक करके प्रत्येक धर्मप्रकारकबुद्धिविषयत्व का अन्वय हो जायगा, तो भी शेष अनन्त प्रदेशों में प्रत्येक में भी प्रत्येक धर्मप्रकारकबुद्धिविषयत्व का अन्वय नहीं होगा। यदि प्रदेश पद से प्रदेशसामान्य की विवक्षा न की जाय, किन्तु प्रदेशविशेष में विश्राम माना जाय-अर्थात् जिस जिस प्रदेश में यद्यद्धर्मप्रकारकबुद्धिविषयत्व का सम्भव हो, उस उस प्रदेश में तत्तद्धर्मप्रकारकबद्धिविषयत्व का अन्वय किया जाय तो, यह सम्भवित है परन्तु ऐसा करने पर नामान्तर से भजना ही सिद्ध होती है जो ऋजसूत्र को भी मान्य है, अर्थात् व्यवहारनयवादी का ऋजुसूत्रमत में प्रवेश हो जाता है । तात्पर्य यह है कि 'प्रदेशः पञ्चविधः' इस वाक्य में प्रदेश शब्द से प्रत्येक प्रदेश अर्थात् प्रदेश विशेष का ग्रहण करना और 'पंचविधः' शब्द का जो पंचप्रकारत्व अर्थ किया गया है उस का 'प्रत्येकधर्मप्रकारकबुद्धिविषयत्व' ऐसा विशेष अर्थ समझा जाय । यहाँ प्रत्येक धर्म से भी तत्तत्प्रदेशगत असाधारणधर्म, धर्मास्तिकायप्रदेशत्व, अधर्मास्तिकायप्रदेशत्व, आकाशास्तिकायप्रदेशत्व आदि पांचों की उपस्थिति होगी और उस में क्रमशः धर्मास्तिकायप्रदेशत्वप्रकारक बुद्धिविषयत्व, अधर्मास्तिकायप्रदेशत्वप्रकारकबुद्धि विषयत्व आदि का अन्वयबोध फलित हो सकता है किन्तु ऋजुसूत्र मतवादी का कहना है कि यह तो हमारे मत में ही व्यवहारनयवादी का प्रवेश हुआ क्योंकि ऐस व्यवहार को ही "भजना" शब्द से यहाँ उल्लिखित किया गया है । जैनशास्त्र में “भजना" शब्द वस्तु में अपेक्षाविषयक प्रतीति या अपेक्षाकृत वकल्पिक व्यवहार ऐसे अर्थ में रूढ है। भजना किस प्रकार होगी यह अभी ही दिखा देंगे।