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नयरहस्ये नयविभागः
रही हुई वस्तु भी सद वस्तु नहीं है, ऐसा ऋजुसूत्र का मन्तव्य है। इसलिए तुल्यांश और ध्रुवांश लक्षण द्रव्य को वह नहीं मानता अर्थात् तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्यता सामान्य को ऋजुसूत्र नहीं मानता है, इसलिए द्रव्याथिक में ऋजुसूत्र का समावेश नहीं होता है। यदि ऋजुसूत्र तिर्यक सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य को मानता होता, तब तो उसका द्रव्यार्थिक में समावेश सम्भव होता, वह तो नहीं मानता है। अतः ऋजुसूत्र का द्रव्यार्थिक में समावेश नहीं हो सकता है। उक्त सूत्र में "पृथक्त्वं नेच्छति" इस अंश का सामान्यरूप से भेदमात्र निषेध में तात्पर्य नहीं हैं, यदि ऐसा तात्पर्य होता तो विरोध आता, क्योंकि पर्यायार्थिक भेद मानता है, ऋजुसूत्र यदि भेद सामान्य को ही नहीं माने तो ऋजसूत्र में पर्यायार्थिकत्व भी सिद्ध न होने से पूर्वोक्त सूत्र का विरोध उपस्थित हो सके, परन्तु ऋजुसूत्र तो अतीतभेद, अनागतभेद, परकीय भेदरूप जो पृथक्त्व उसीको केवल नहीं मानता है । इसीलिए उक्त सूत्र का विरोध वादीदिवाकर के मत में नहीं होता है।
[अनुपयोग अंश को लेकर द्रव्यपद का औपचारिक कथन] ___ अत एव इत्यादि-ऋजुसूत्र तुल्यांश-ध्रुवांश लक्षण द्रव्य को नहीं मानता है, इसी हेतु से “भूतपर्यायकारणत्वरूप द्रव्यत्व" तथा भाविपर्याय कारणत्वरूप द्रव्यत्व को भी नहीं मानता है। इसका तात्पर्य यह है कि ऋजुसूत्र वर्तमानवस्तु को ही स्वीकारता है । भूत और भविष्यत् वस्तु तो वर्तमानकाल में असत् रहती है, इसलिए “भूतपर्याय कारणत्वरूप” और “भविष्यत्पर्यायकारणत्वरूप द्रव्यत्व" असत्घटित हो जाता है, असत्घटित होने के कारण ऋजुसूत्र के स्वीकार का विषय उस तरह का द्रव्यत्व नहीं होता है। उक्तसूत्र में ऋजसूत्र का, जो द्रव्यावश्यक स्वीकार की बात कहकर द्रत्यार्थिक में अन्तर्भाव किया है, वह वर्तमानावश्यक पर्याय में अनुपयोग रूप अंश को लेकर द्रव्यपद का उपचार कर के किया है । वास्तविक द्रव्यत्व तो ऋजुसूत्र में नहीं है, औपचारिक द्रव्यत्व स्वीकार करने पर भी पर्यायार्थिकत्व की हानि ऋजुसूत्र में नहीं होती है । कारण पर्यायाथिक मुख्य द्रव्यपदार्थ का ही निषेध करता है, आरोपित द्रव्यत्व होने पर भी पर्यायाथिक को कोई बाधा नहीं है। 'अनुपयोगांशमादाय....' यह वाक्य जो उपाध्यायजी ने दिया है, उसका तात्पर्य यह है कि ऋजुसूत्र वर्तमानवस्तु मात्र का ग्राहक है। इस लिए वर्तमानावश्यक पर्याय को ही मानता है। वर्तमान आवश्यक पर्याय में जब कर्ता का उपयोग [दत्तचित्तता] नहीं है तब भावविमुक्त होने से उस आवश्यक पर्याय में द्रव्यपद का उपचार सूत्र में हुआ है, अनुपयोग अंश को लिये बिना द्रव्य पद का उपचार नहीं हो सकता है। ऋजुसूत्र अध्रव धर्मों के आधारभूत अंश स्वरूप द्रव्य भी नहीं मानता है । अतः द्रव्य का यह लक्षण भी ऋजुसूत्र में नहीं जाता है, इसलिए भी ऋजुसूत्र में द्रव्यार्थिकत्व होने की सम्भावना नहीं रहती है। यदि अध्रुवधर्माधारांशद्रव्य ऋजुसूत्र का विषय है ऐसा मानकर ऋजुसूत्र को द्रव्यार्थिक बताने का प्रयास किया जाय तो शब्दनयों में भी द्रव्यार्थिकत्व का अतिप्रसंग होगा क्योंकि साम्प्रत, समभिरूढ और एवम्भृत, शब्दनय के ये तीनों भेद ऋजुसूत्र के विषय में ही अर्थात् स्वकीयवतमान वस्तु