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उपा. यशोविजयरचित
" ऋजुसूत्र वर्जास्त्रिय एव द्रव्यार्थिक भेदा" इति तु वादिनः सिद्धसेनस्य मतम्, अतीतानागतपरकीय भेदपृथक्त्व परित्यागा हजुसूत्रेण स्वकार्यसाधकत्वेन स्वकीयवर्त्तमानवस्तुन एवोपगमात् नाऽस्य तुल्यांश - ध्रुवांशलक्षणद्रव्याभ्युपगमः । अत एव नास्यासद्घटितभूतभा विपर्यायकारणत्वरूपद्रव्यत्वाभ्युपगमोऽपि । उक्तसूत्रं त्वनुपयोगांशमादाय वर्त्तमानावश्यकपर्याये द्रव्यपदोपचारात्समाधेयम् । पर्यायार्थिकेन मुख्यद्रव्यपदार्थस्यैव प्रतिक्षेपादध्रुवधर्माधारांशद्रव्यमपि नास्य विषयः, शब्दनयेष्वतिप्रसङ्गादित्येतत्परिष्कारः ।
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हैं, अनागत वस्तु भी नहीं मानता है । क्योंकि अतीत वस्तु तो विनष्ट हो गई है और अनागत तो उत्पन्न ही नहीं हुई है । वर्त्तमानकालवर्त्ती वस्तु भी जो स्वकीय है, उसी को ऋजुसूत्र मानता है क्योंकि उसी से उसका कार्य सिद्ध होता है । वर्त्तमानकालवर्त्ती परकीय वस्तु को नहीं मानता है, क्योंकि उससे उसका कार्य नहीं सिद्ध होता है । जैसे - परकीय धन को कोई (अपना) धन नहीं समझता है क्योंकि परकीय धन से उस व्यक्ति का कार्य तो नहीं सिद्ध होता है, स्वकीय धन से ही स्वकार्य सिद्ध होता है । इसलिए स्वकीय धन को सभी लोग अपना धन मानते हैं । इसी तरह ऋजुसूत्र वर्त्त - मानकालवर्त्ती होने पर भी जो स्वकीय वस्तु है उसी को मानता । इस हेतु से उपयोग रहित एक देवदत्तादि इसके मत में 'आगमतः एक द्रव्य आवश्यक' है । वस्तु में अतीत अनागत भेद से और परकीय भेद से पृथक्त्व ऋजुसूत्र नहीं मानता है अर्थात्वस्तु का भेद नहीं मानता है, किन्तु वस्तु को एक ही मानता है, ऐसा अर्थ मलधारिवृत्ति में इस सूत्र का दिया गया है । इसलिए इस सूत्र से द्रव्यावश्यक ऋजुसूत्र को मान्य है, तब यदि ऋजुसूत्र क्रय को नहीं मानता है, ऐसा कहें तो उक्तसूत्र का विरोध स्पष्टरूप से हो जाता है । अतः ऋजुसूत्र का द्रव्यार्थिक नय में ही अन्तर्भाव करना चाहिए ऐसा जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि का मत है ।
[ ऋजुसूत्र द्रव्यार्थिकनय का भेद नहीं है- वादिसिद्धसेनमत ]
ऋजुसूत्र वर्जास्त्रय " - इत्यादि - "वादी दिवाकर सिद्धसेन" द्रव्यार्थिक के तीन ही भेद मानते हैं- नैगम, संग्रह और व्यवहार । ऋजुसूत्र का समावेश द्रव्यार्थिक में वे नहीं करते हैं । तब यह शंका उठती है कि - "ऋजुसूत्र " का द्रव्यार्थिक में समावेश न किया आय तो, पूर्वोक्त " उज्जुसुअस्स० " इत्यादि सूत्र का विरोध वादि दिवाकर के मत में होगा, क्योंकि उक्त सूत्र- 'एक द्रव्यावश्यक का स्वीकार ऋजुसूत्र करता है - ऐसा बता रहा है ।'- इस आशंका के समाधान के लिए “उपाध्यायजी' वादी दिवाकर के मत का विश्लेषण "अतीतानागत" इत्यादि वाक्य से करते हैं जिसका तात्पर्य यह है कि अतीत अनागत एवं परकीय भेद स्वरूप पृथक्त्व का ही ऋजुसूत्र त्याग करता है । ऋजुसूत्र के मत में वर्तमान क्षणमात्र में रहनेवाली वस्तु का ही स्वीकार है, क्योंकि उसी से स्वकीय कार्य की सिद्धि होती है । अतीत, अनागत उसके मत में है ही नहीं । दूसरे के पास
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