________________
उपा. यशोविजय रचित
द्वौ मूलभेदौ, द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च । तत्र "द्रव्यमात्रग्राही नयो द्रव्यार्थिकः ।" अयं हि द्रव्यमेव ताचिकमभ्युपैति, उत्पाद विनाशौ पुनरतात्विको आविर्भावतिरोभावमात्रत्वात् । इत्यादि ग्रन्थ से प्रदर्शित करते हैं । “अर्पितानर्पित सिद्धेः” इस सूत्र से इसी वस्तु का सूत्रकार ने भी समर्थन किया है । सूत्रकार का आशय यह है कि सभी वस्तुरूप धर्मी अनेक धर्मों से युक्त हैं तो भी जब जैसा प्रयोजन होता है, तब तद्धर्मवाचक शब्द के द्वारा प्रयोजन विषयीभूत सम्बन्धित धर्म का बोध किया जाता है। शब्द के द्वारा विवक्षित धर्म को बोधित करना ही सूत्रगत “अर्पित” शब्द का अर्थ है। जिस धर्म का बोध करने में प्रयोजन नहीं रहता है, वह धर्म शब्द के द्वारा बोधित नहीं किया जाता है, यही सूत्रगत "अनर्पित" शब्द का अर्थ है । तथापि अनर्पित धर्म की सिद्धि अर्थात् ज्ञान गौणभाव से होता ही है । अर्पित से अनर्पित धर्म की सिद्धि होती है, यह सूत्रार्थ निकलता है। जिस को रक्तकमल का प्रयोजन होता है, वह "रका कमलं आनय" इस वाक्य का प्रयोग किसी के प्रति करता है। यहाँ पर कमलगत रक्तत्व प्रयोजन से सम्बन्धित है। इसलिए रक्त पद से अर्पित किया गया है, यहाँ रक्तत्व धर्म प्रधानरूप से अर्पित है । उस अर्पित रक्तत्व धर्म से अनर्पित श्वेतत्व नीलत्वादि धर्मों का गौणरूप से बोध होता ही है। क्योंकि कमलरूप धर्मी में इन सभी धर्मों का सदभाव है । यदि कमल में श्वेतत्व नीलत्वादि धर्मों का सदभाव न होता, तो इन की व्यावृत्ति के लिए रक्त पद का जो प्रयोग किया गया है वह अनर्थक बन जाता। इसलिए अर्पित धर्म से अनर्पित धर्मों की सिद्धि वस्तुमात्र में माननी चाहिए । ऐसा मानने पर वस्तु की अनेकान्तात्मकता सिद्ध हो जाती है। इसी सिद्धि के आशय से यह सूत्र प्रवृत्त है। उपाध्यायजी ने भी अपने शब्दों से इसी अनन्तधर्मात्मक वस्तु की सिद्धि की है । उसका समर्थन इस सूत्र से उक्तरीति से होता है। अतः ग्रन्थकार के कथित अर्थी को यह सूत्र प्रमाणित करता है, इसलिए इस सूत्र को प्रमाणरूप से प्रदर्शन करना योग्य ही है । उपाध्याय जी यह भी सूचित करते हैं कि जिस को इस से अधिक अर्थ की जिज्ञासा हो, वह त्रिसूत्र्यालोक' को देखे । त्रिसूत्र्यालोक में उन्होंने और भी विशेषरूप से अनेकान्त वस्तु की सिद्धि की होगी, परन्तु खेद की बात है कि 'त्रिसूत्र्यालोक' ग्रन्थ आज हम लोगों को उपलब्ध नहीं है।
[ द्रव्यार्थिक नय के अभिप्राय का स्पष्टीकरण ] “द्वौ मल"इत्यादि- पूर्वोक्तरीति से वस्तु में अनन्तधर्मात्मकत्व सिद्ध हीने के बाद, अनेकान्तात्मक वस्तु के द्रव्य और पर्याय इन दोनों अंशों में से किसी एक अंश का प्रधानतया ग्राहक अभिप्रायविशेष ही नय है, यह सिद्ध हो जाता है। उस नय के मूल भेद दो हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । ऐसे तो नगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इस रीति से सात नय शास्त्रकारों ने दिखाये हैं, तथापि उन सातों भेदों के संग्राहक द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों भेदों का 'मूलभेद' पद से ग्रन्थकार ने परिचय दिया है। इन दोनों भेदों में से “द्रव्यार्थिक नय" उस को कहते हैं, जो