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उपा. यशोविजय रचित
एतेनेतरे तर प्रवेशादेकतरगुणपरित्यागोऽपि निरस्तः, अन्यतरदोषापत्तेरनुभव
बाधाच्च ।
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निवृत्ति के प्रति जात्यन्तर को प्रयोजक मानना ही योग्य है । माधुर्योत्कर्ष की निहा को, तथा कटुकत्वोत्कर्ष की हानि को या माधुर्यापकर्ष और कटुतापकर्ष को दोष (कारिता) की निवृत्ति के प्रति प्रयोजक मानने पर दूसरी आपत्ति भी आती है । वह यह है कि माधुर्योत्कर्ष की हानि होने पर, तथा माधुर्यापकर्ष से, मन्दकफकारित्व हो जाना चाहिए । एवं कटुतोत्कर्ष की हानि होने पर अथवा कटुता का अपकर्ष होने पर मन्दपित्तकारिता उस चूर्ण में होनी चाहिए, परन्तु गुडशुण्ठी से तैयार किये हुए चूर्ण से मन्दकफ या मन्द पित्त का होना अनुभव में नहीं आता है । इस हेतु से उस चूर्णद्रव्य में जात्यन्तर स्वीकार करके तत्प्रयुक्त दोष (कारिता) निवृत्ति को मानना यह योग्य प्रतीत होता है । अतः इस दृष्टान्त से कथञ्चित् भेदाभेद उभयात्मक वस्तु में जात्यन्तर मानकर तत्प्रयुक्त प्रत्येक पक्ष में उक्त दोष का वारण करना यही योग्य है ।
[ माधुर्य या कटुता गुण के परित्याग से दोषनिवृत्ति का असंभव ]
" एतेनेति" - यहाँ किसी का यह मन्तव्य है कि गुड शुण्ठी के संयोग से बने हुए चूर्ण में शुण्ठीद्रव्य में गुड क्रय का प्रवेश होने से शुण्ठी द्रव्य अपने कटुकत्व का त्याग कर देता है, और गुड द्रव्य में शुण्ठी के प्रवेश से गुड द्रव्य अपने माधुर्यगुण का त्याग कर देता है । इसलिए शुण्ठी में पित्तदोषकारिता नहीं रहती है, तथा गुडद्रव्य में कफदोषकारिता नहीं रहती है, इतने मात्र को मानने से यदि कोई दोष नहीं होता है, तब गुडशुण्ठी मिश्रण से बने हुए चूर्णद्रव्य में जात्यन्तर मानना आवश्यक नहीं है। इस पक्ष के निरास का अतिदेश उपाध्यायजी " एतेन" पद द्वारा करते हैं । इसका भावार्थ यह है कि एकतर की बलवत्ता होने पर भी अन्य का अपकर्ष सम्भव होता है वैसे ही एकतर की बलवत्ता होने पर भी अन्य के गुण का परित्याग भी सम्भवित हो सकता है। किन्तु यहाँ गुड और शुण्ठी इन दोनों द्रव्यों में से कोई भी द्रव्य अधिक बलशाली नहीं है, किन्तु दोनों समान बलशाली हैं । इसी कारण से उत्कर्षहानि या अपकर्ष मानने वाले पूर्वक्ति पक्ष का निरास किया गया है। वह निरास का हेतु तो गुणपरित्यागपक्ष में भी लागू है ही तो उसी हेतु से गुणत्याग पक्ष का भी निरास हो जाता है । तथापि गुणत्याग पक्ष को निरस्त करने के लिए और दो हेतु बताते हैं । इन में एक हेतु यह है कि- शुण्ठी के प्रवेश से गुड के माधुर्यगुण का परित्याग माना जाय तो उस काल में शुण्ठी का गुण जो कटुकत्व है उस का तो त्याग नहीं होता है, परन्तु उसका सद्भाव है, तब कटुकव प्रयुक्त पित्तदोष की आपत्ति होनी चाहिए। दूसरा, शुण्ठी द्रव्य में गुड द्रव्य के प्रवेश से शुण्ठी का गुण जो कटुकत्व है उस का त्याग माना जाय तो कटुकत्व के त्यागकाल में गुड का गुण जो माधुर्य है, उस का त्याग तो नहीं होता है, किन्तु उस का सद्भाव ही रहता है । इसलिए उक्त चूर्ण के सेवन से कफ की वृद्धि होनी चाहिए, वह तो होती नहीं है, इस हेतु से यह गुणत्याग पक्ष अयुक्त है