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उपा. यशोविजय चरित __ अत्र च त्रिभिनिदर्शनैर्विरुद्धधर्मग्राहित्यांशग्राहित्वप्रमितिवैलक्षण्यानां विप्रतिपत्तित्वसाधकहेतूनामसिद्धिव्यभिचारप्रदर्शनादिष्टसिद्धिरिति विभावनीयम् ॥ से सत्यादिज्ञान स्वगत विशद्धि की अपेक्षा से क्रमभावि मनुष्यादिपर्यायों का तारतम्य से वोध कराते हैं, तो भी विप्रतिपत्तिरूप नहीं होते हैं । वैसे ही नैगमादि नय विभिन्न अर्थी का ज्ञान कराते हैं, तथापि प्रतिपत्तिरूप नहीं है।
[विपतिपत्तित्व की शंका का निराकरण-४] उपाध्यायजी नयों में विप्रतिपत्तित्वप्रसंग का निवारण करने के लिए तीसरा भी दृष्टान्त देते हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आप्तवाक्य इन प्रमाणों का अपना अपना विषय नियत है। इसलिए प्रत्यक्षादिप्रमाण चतुष्टय एक ही वस्तु में प्रवृत्त होने पर भी अपने अपने नियत विषयों का ही ज्ञान कराते हैं। जैसे-पर्वत में रहे हुए अग्नि का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से वह व्यक्ति करेगा जो अग्नि के समीप देश में रहता हो और अग्नि के साथ जिस को इन्द्रिय सन्निकर्ष हो । उसी अग्नि का ज्ञान दूरदेशवर्ति व्यक्ति को धूमादि लिङ्गज्ञान से होता है । उसी अग्नि का ज्ञान उपमान से भी किसी को होता है, जब कोई अग्नि के स्वरूप को न जानता हुआ पूछे कि अग्नि कैसा होता है, तब अग्नि के स्वरूप को जानता हुआ व्यक्ति यदि जवाब देता है कि जैसा सुवर्ण का पुंज भास्वर होता है, वैसा अग्नि होता है । इस वाक्य के अर्थ का अनुसंधान रखता हुआ वह प्रश्न करनेवाला जब कभी अग्नि के साथ इन्द्रिय सन्निकर्ष होने पर यह समझ जाता है कि सुवर्ण पुंज के समान यह भी प्रकाशित हो रहा है, इसलिए यह -दमी को उपमान से हुआ ज्ञान कहा जाता है। कोई व्यक्ति तो किसी आप्त व्यक्ति के उपदेश से एसा निश्चय करता है कि इस पर्वत में अग्नि है । यहाँ एक ही अग्निरूप अर्थ अनेक प्रमाणों से निश्चित होता है और सभी का विषय भिन्न है। प्रत्यक्ष, सन्निकृष्ट अग्नि को विषय करता है। अनुमान का विषय विप्रकृष्ट अग्नि है। उपमान का
ज सदृश अग्नि है । आप्त वाक्य का विषय पर्वतादिगत परोक्ष अग्नि है। तथापि प्रत्यक्षादिरूप ज्ञान जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से होते हैं, वे विरुद्ध नहीं होते है । अर्थात् अयथार्थ ज्ञान नहीं होते । उसी तरह से नैगमादिनय भी अपने अपने नियत विषयों का प्रकाश करते हैं, तथापि विप्रतिपत्तिरूप नहीं है, अर्थात् अयथार्थ नहीं हैं। उपाध्यायजा की पक्ति का अर्थ ऐसा है-एकत्रार्थ =अग्निआदिरूप एक अर्थ में प्रतिनियतविषयविभागशालिनाम्-जिन के विषयों का विभाग निश्चित है, एसे प्रत्यक्षादीनाम् प्रत्यक्षादि प्रमाणों में जसे विप्रतिपत्तित्व प्रसंग नहीं होता है, वैसे नैगमादि नयों को भी विप्रतिपत्ति मानना ठीक नहीं है । इन तीनों दृष्टान्तों से नगमादि अध्यवसायों में
विविध धर्मबोधकता होने पर भी नैगमादि अध्यवसायों में एकत्व द्वित्वादि अध्यवसायों के जैसे और भिन्नार्थ ग्राहि मतिज्ञानादि के जैसे, तथा एक अर्थ में स्वस्वविषयग्राहि प्रत्यक्षादि प्रमाणों के जैसे विप्रतिपत्तिरूपता नहीं होती है। ऐसा सम्प्रदाय है-ऐसी परम्परा है। अर्थातू-प्राचीन आचार्यों की ऐसी मान्यता है ।
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