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उपा. यशोविजयरचित
स्यादेतत् " एकत्वादिकं न वास्तवसंख्यारूपं, किंतु विभिन्नधर्मप्रकारकबुद्धिविषयत्वरूपं तच्च मिथो न विरुद्धं नयविषयीभूतं भेदाभेदादिकं तु विरुद्धमेवेति । मैवम् सतामेवैकत्वादीनां बुद्धिविशेषेणाभिव्यक्तेः, अन्यथा तद्विषयत्वायोगादेकत्र प्रमीयमाणत्वेन चाविरोधात्, तद्वदेव भेदादीनामविरोध इति विभावनीयम् ।
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अभिप्राय से उपाध्यायजी ने तृतीय दृष्टान्त का उपादान किया है । इन बातों का विचार पाठक को भी करना चाहिए, ऐसी सूचना 'विभावनीय' पद से उपाध्यायजी ने दी है ।
[ एकत्वादि संख्यारूप न होने की आशंका ]
स्यादेतदिति - यहाँ यह शंका होती है कि-नंगमादि नयों में विप्रतिपत्तित्व साधक जो प्रथम हेतु विरुद्धधर्मग्राहित्वरूप लगाया गया था, उस को आभास बनाने के लिए आपने एकत्व - द्वित्वादि अध्यवसायों को दृष्टान्तरूप से ग्रहण किया था । परन्तु उस दृष्टान्त से विरुद्धधर्मग्राहित्वरूप हेतु आभास बनता नहीं है । चूँकि एकत्व - द्वित्वादि अध्यवसायों में जो एकत्व - द्वित्वादि धर्म भासते हैं, वे वस्तुतः संख्यारूप नहीं है, किन्तु विभिन्नधर्मप्रकार बुद्धिविषयत्वरूप हैं । अतः वे परस्पर विरुद्ध नहीं हैं । 'यह सकल जगत् सत् होने से एक है' यह बुद्धि एकत्वप्रकारकबुद्धि है, तद्विषयत्वरूप हो एकत्व जगत् में भासता है । ऐसे ही यह सकल जगत् जीवात्मक और अजीवात्मक है, इसलिए दो है । यह बुद्धि द्वित्वप्रकारक बुद्धि है । एततबुद्धिविषयतारूप ही द्वित्व जगत् में रहता है, जो द्वित्वाध्यवसाय में भासित होता है किन्तु वह द्वित्व द्वित्वसंख्यारूप नहीं है । ऐसे ही त्रित्वादि अध्यवसायों में जो त्रित्वादि धर्म भासित होते हैं, वे भी संख्यारूप नहीं हैं, किन्तु विभिन्नधर्मप्रकारकबुद्धिविषयत्वरूप ही हैं । अतः विरुद्ध विभिन्नधर्मग्राहित्वरूप हेतु एकत्वादि अध्यवसायों में है ही नहीं । इस कारण से एकत्वादि अध्यवसाय भले ही विप्रतिपत्तिरूप न होवे, नैगमादि नय तो एक वस्तु में भेदाभेद, नित्यत्व-अनित्यत्व इत्यादि जो विरुद्ध धर्म हैं, उन के ग्राही हैं, इसलिए विरुद्धविभिन्नधर्मग्राहित्व हेतु से विभिन्न अध्यवसायरूप नयों में विप्रतिपत्तित्व सिद्ध होता ही है। तब प्रथम दृष्टान्त से आप का अभीष्ट जो नयों में अविप्रतिपत्तिरूपता है उसकी सिद्धि नहीं हो सकती है ।
इस शंका का समाधान उपाध्यायजी देते हैं कि सकल जगत् में एकत्व द्वित्वादि संख्यारूप धर्म अवश्य विद्यमान हैं। जिन की बुद्धिविशेष से अर्थात् 'सकल जगत् एक है, सकल जगत् दो हैं' इत्यादि बुद्धियों से अभिव्यक्ति होती है, अर्थात् प्रगट रूप से जाने जाते हैं । यदि एकत्वादि संख्यारूप धर्म जगत् में विद्यमान नहीं होते तो 'यह जगत् एक हैं, यह जगत् दो हैं' इत्यादि वुद्धिविषयता एकत्वादि में नहीं होती । एक ही वस्तु में एकत्व - द्वित्वादि धर्म प्रमीयमाण हैं, अर्थात् प्रमात्मकबुद्धि के विषय बनते हैं । इसलिए एकत्व - द्वित्वादि धर्म में परस्पर विरोध नहीं है । इसी तरह भेद - अभेद, नित्यत्व - अनित्यत्व आदि धर्म भी एकवस्तु में प्रमीयमाण हैं । इसी हेतु से इन धर्मों में भी परस्पर विरोध नहीं हैं । तब विरुद्धधर्मग्राहित्वरूपहेतु एकत्वादि अध्यवसायरूप