Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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आमुख xxiv महाराष्ट्र के सतारा में एवं राजस्थान के अलवर जिले के बहाला गांव में आपने डंडे के प्रहार से चोटग्रस्त सो को अपने हस्तप्रोक्षण वस्त्र से हाथ में उठाकर जिस प्रकार प्राण दान दिया, उससे आपकी अनकम्पा एवं करुणाशीलता का परिचय मिलने के साथ उससे भी कहीं आगे बढ़कर आपकी निर्भयता एवं स्वयं के जीवन के प्रति निर्मोहता की पुष्टि होती है। जिन्हें मृत्यु से भय न हो, ऐसे महापुरुष ही इस प्रकार का असाधारण कार्य कर सकते हैं। सर्परक्षा की घटनाओं से यह ध्वनित होता है कि जो साधक-महापुरुष राग-द्वेष के विजयपथ पर अग्रसर हों. उनके कोमल हस्त का आश्रय पाकर चोटग्रस्त सर्प भी मानो अपने स्वभाव को भल जाते हैं।
निर्भय होने के साथ आप सत्य, हितकारी एवं निरवद्य वचन को अभिव्यक्त करने में सदैव निर्भीक रहते थे। बिना लाग-लपेट के आपने हितकारी बात को स्पष्ट कहने में एवं चतुर्विघ-संघ का मार्गदर्शन करने में कभी संकोच नहीं किया।
सोच विचारकर अत्यल्प शब्दों में निरवद्य रूप से अपनी बात प्रस्तुत करना भी आपके जीवन की प्रमुख । विशेषता थी। आपका मन्तव्य था कि वचन रत्न की भांति होते हैं, इसलिए उन्हें सोच-विचारकर बाहर निकालना चाहिए
'वचन रतन मुख कोटड़ी, होठ कपाट जड़ाय।
बार बार खोलत डरूँ, पर हाथ न लग जाय।। प्रवचन में आप सहज ग्राह्य, किन्तु हृदयस्पर्शी भाषा का प्रभावी प्रयोग करते थे। संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी भाषा के विद्वान् होते हुए भी भाषा के आडम्बर की अपेक्षा भावों के सम्प्रेषण पर आपका विशेष बल था। प्रारम्भिक वर्षों में आपके प्रवचन आगम-शास्त्र के विवेचन पर ही केन्द्रित रहते थे, किन्तु धीरे-धीरे आपने व्यक्ति एवं समाज के समुचित उत्थान हेतु स्वाध्याय, सामायिक एवं समाज-सुधार को भी अपने प्रवचनों का विषय बनाया। आपके प्रवचनों में विषय का प्रतिपादन आगम पुरस्सर होता था। प्रवचन सुगम एवं विषय का सम्यक् प्रतिपादन करने वाले होते थे। प्रवचन के अतिरिक्त जब कभी आप सन्त-सतियों, श्रावक-श्राविकाओं से तत्त्वज्ञान की चर्चा करते तब उसका सारगर्मित शैली से सुन्दर निरूपण करना भी आपकी वाणी का प्रमुख वैशिष्ट्य था।
साधारण वार्तालाप में आप संकेतात्मक भाषा का प्रयोग करते थे। आपके संकेतों को समझना बिना अभ्यास के हर एक के लिए संभव नहीं था। हित-मित एवं सत्य वाणी का प्रयोग करने वाले महान् साधक की वाणी में मंत्र सा चमत्कार था। आपके वचन श्रावकों के लिए प्रमाण होते थे। भक्त आपको वचनसिद्ध योगी के रूप में स्वीकार कर आपके वचनों की पालना करने के लिए तत्पर रहते थे। आपके कथन भावी घटनाओं के सूचक होते थे। भाषा समिति की कठोर पालना के साथ सत्य मार्ग पर चलने वाले उन महान साधक के वचनों का सत्य होना स्वाभाविक ही था।
घटनाओं के विश्लेषण की आपमें अद्वितीय क्षमता थी। एक बार आपने रामनिवास बाग,जयपुर में गरजते हुए सिंह की गर्जना सुनकर श्रद्धेय श्री मानचन्द्र जी म.सा. से कहा- "मान जी! सुना आपने, 'मैं हूँ मैं हूँ।' चरितनायक का संकेत कर्मजाल रूपी पिंजरे में जकड़ी हुई सर्वशक्तिमान, अनन्तगुण सम्पन्न आत्मा की ओर था जो हुंकार के माध्यम से साधक को निज-अस्तित्व 'मैं हूँ मैं हूँ' का प्रतिबोध देती है।
ब्रह्मचर्य की अखण्ड निर्मल साधना भी आपके प्रभावशाली साधक जीवन का हेतु रही। आपके आभामण्डल पर ब्रह्मचर्य की तेजस्विता का अद्भुत प्रभाव था। गर्भकाल से ही माता रूपादेवी से आपने ब्रह्मचर्य के संस्कार विरासत में प्राप्त किए जिन्हें आप अपनी साधना से निरन्तर पुष्ट करते रहे। तन एवं मन पर आपका