Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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आमुख संयोगों से हटकर आत्मगणों के साथ मन के योग की साधना ही हो सकता है। आर्तध्यान और रौद्रध्यान तो आपसे कोसों दूर थे। अध्यात्मयोगी आचार्यप्रवर तो धर्म-ध्यान और उसके आगे शुक्ल-ध्यान के सोपानों की ओर हीचरण बढ़ाने को अग्रसर थे।
आप आचार्य की आठ सम्पदाओं से युक्त होने के साथ 36 गुणों के धारक थे। आचार सम्पदा, श्रुत सम्पदा, शरीर सम्पदा, वचन सम्पदा, वाचना सम्पदा, मति सम्पदा, प्रयोगमति सम्पदा और संग्रह परिज्ञा सम्पदा ये आठ सम्पदाएँ आपमें सहज परिलक्षित होती थीं। पांच महाव्रतों के पालन के साथ पांचों इन्द्रियों पर निग्रह. ज्ञानाचार आदि पाँच आचारों से समृद्ध, क्रोधादि चार कषायों के विजेता, पाँच समिति-तीन गुप्ति के शुद्ध आराधक, नववाड़ सहित ब्रह्मचर्य के उत्कृष्ट पालक बाल ब्रह्मचारी आचार्यप्रवर को चारित्र चूड़ामणि, संयम सुमेरु आदि विशेषणों से अलंकृत किया जाना संयम-पथिकों के लिए गौरव की ही बात कही जा सकती है।
स्थानांग सूत्र में प्रतिपादित संयम के चार प्रकार मन-संयम, वचन-संयम, काय-संयम और उपकरण-संयम के निर्मल पालन के साथ आप उत्तराध्ययन सूत्र के वाक्य 'निम्ममो निरंहकारो, निस्संगो चत्तगारवो' (19.90) को चरितार्थ करते हुए ममत्व और अहंकार से रहित थे। इससे भी अधिक आप निस्संग और गारव के परित्यागी थे। आप लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान आदि में समत्व भाव रखने वाले महान साधक शिरोमणि थे। रोष या क्रोध के प्रसंगों में भी शान्ति, तथा उपसर्ग के समय मी समभाव आपके चेहरे पर झलकते थे।
चारित्र का पालन जब अध्यात्म के साथ जुड़ जाता है तो साधना का स्वरूप उच्च कोटि का होता है। आप उच्च कोटि के साधक सन्त थे। अप्रमत्तता, निःस्पृहता, निरभिमानता, निर्भयता, मितभाषिता, गुणियों के प्रति प्रमोद भाव, प्राणिमात्र के प्रति करुणाभाव आदि अनेक गुण आपकी साधना को दीप्तिमान एवं तेजस्वी बना रहे थे। संवनायक का दायित्व वहन करते हुए आपका लक्ष्य अपनी साधना को निरन्तर उत्कर्ष की ओर ले जाने का रहा। प्रातः जागरण से लेकर रात्रि-विश्राम के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग आपकी जीवनचर्या का अंग बन चुका था। किस समय क्या करना, इसका आपको पूरा ध्यान रहता था। स्वाध्याय, ध्यान, मौन, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, शास्त्र-वाचना, सायंकालीन प्रतिक्रमण के पश्चात् कल्याणमन्दिरस्तोत्र एवं नन्दीसूत्र का स्वाध्याय आदि समी क्रियाएँ आप निश्चित समय पर एवं सजगतापूर्वक करते थे। आपकी अप्रमत्तता बाह्य क्रियाओं में ही नहीं आत्मस्वरूप के स्मरणपूर्वक अन्तरंग से जुड़ी हुई थी। आत्मस्वरूप के विस्मरण के साथ विषय-कषायों में उलझना, उनके मिलने पर हर्षित होना आदि जो प्रमाद का स्वरूप है, उससे पूज्य आचार्यप्रवर कोसों दूर थे एवं सबको अप्रमत्त रहने की प्रेरणा करते थे।
लोकैषणा की स्पृहा से आप सर्वथा दूर थे। भक्त-जन उनकी जय-जयकार करें, इसकी उन्हें कोई वांछा नहीं थी। एक बार चर्चा चली कि आचार्य पद के पूर्व 108 का प्रयोग किया जाए या 1008 का? आपने फरमाया"हमारे बचपन में सन्तों के नाम के आगे 6 का अंक लगाया जाता था। 6 का मतलब होता है षट्काय प्रतिपाल।" आप ही के शदों में-"क्या इससे बढ़कर और कोई विशेषण हो सकता है?" कैसी निस्पृहता एवं निरभिमानता। आप यशःकामना, भक्तसंख्या आदि की स्पृहा से रहित होकर साधक-जीवन की पराकाष्ठा को ही अपना लक्ष्य समझते थे। आपके अन्तरंग में दशवैकालिक सत्र की निम्नांकित गाथा पूर्णतः स्पष्ट थी कि पूजा की वांछा करने वाला, यश की कामना करने वाला तथा मान-सम्मान की अभिलाषा करने वाला श्रमण विभिन्न प्रकार के पाप