Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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आमुख
xxi
| बारीक अक्षरों की बनावट आकर्षक होती थीं। वस्तु के सदुपयोग, एकाग्रता एवं सजगता का पाठ आपके अक्षरों | को देखते ही मिल जाता है।
新事
'पूज्यश्री' के संबोधन से विख्यात आचार्यप्रवर साधारण सी देह में एक असाधारण अध्यात्मयोगी एवं महान संत के जीवन से ओत-प्रोत थे। आपकी अध्यात्मयोगिता का सर्वाधिक प्रसिद्ध निदर्शन है- निमाज में | आपका तेरह दिवसीय तप-संथारा। जिन उच्च आध्यात्मिक भावों के साथ शरीर से अपने को पृथक् समझते हुए | आपने संलेखना के साथ समाधिमरण का योजनापूर्वक वरण किया, वह अपने आप में एक अप्रतिम उदाहरण है। आचार्य पद पर रहकर संघ के विभिन्न दायित्वों का कुशलतापूर्वक निर्वहन करते हुए आत्मसाधना के इस उच्च शिखर पर पहुँचने के उदाहरण शताब्दियों में भी विरल ही मिलते हैं। संतों और भक्त - श्रावकों के को आपने मोह का रूप समझकर उसकी उपेक्षा की तथा देह त्याग का समय सन्निकट जानकर सर्वविध अनुनय-विनय संयोगों से अपने को पृथक् कर लिया। आपने समस्त आचार्यों, श्रमणवरेण्यों श्रमणीवृन्दों, अपने अन्तेवासी शिष्यों, शिष्याओं, श्रावकों, श्राविकाओं एवं 84 लाख योनियों के समस्त जीवों से क्षमायाचना करते हुए अपने को पुनः पंच महाव्रतों में आरूढ़ किया । संघनायकों, विशिष्ट जनों को अभीष्ट हितावह प्रेरणा करके आप संघ के ममत्व एवं दायित्व से भी पृथक् हो गए। आपकी अध्यात्मयोगिता आपके द्वारा युवावय में रचित पदों एवं भजनों में भी प्रतिबिम्बित होती है। 'मैं हूँ उस नगरी का भूप, जहाँ नहीं होती छाया धूप' 'समझो चेतन जी अपना रूप, यो अवसर मत हारो', 'मेरे अन्तर भया प्रकाश, नहीं अब मुझे किसी की आस', 'सतगुरु ने यह बोध बताया, नहि काया नहिं माया तुम हो' आदि पद्य इसके साक्षी हैं।
देह से आत्मा को भिन्न अनुभव करना अध्यात्म योगी का प्रमुख लक्षण है। शरीर आदि समस्त बाह्य | वस्तुओं से अपने को पृथक् हटाकर आत्म-स्वरूप के साथ योग करना ही अध्यात्म योग है। अध्यात्म योग की ऐसी साधना के परम साधक पूज्य आचार्य श्री रात्रि के किस प्रहर में कब ध्यानस्थ हो जाते यह अंतेवासियों को भी ज्ञात नहीं होता था । निद्रा को हम सांसारिक प्राणी पुनः ताजगी के लिए आवश्यक मानते हैं, किन्तु वे अध्यात्म योगी तो 'मुणिणो सया जागरन्ति' आगम वाक्य के साक्षात् निदर्शन थे । मध्याह में भी आप नियमित रूप से ध्यान-साधना करते थे। ध्यान के साथ मौन आपकी अध्यात्म-साधना का महत्त्वपूर्ण अंग था। प्रत्येक गुरुवार एवं प्रत्येक माह की कृष्णा दशमी को पूर्ण मौन रखने के साथ प्रतिदिन दोपहर 12 से 2 बजे तक आप | मौन साधना किया करते थे। आपका ध्यान और मौन अध्यात्म-साधना के मजबूत सोपान सिद्ध हुए। मौन में आप मात्र वाणी से विराम नहीं करते थे, अपितु उसे मन, इन्द्रिय आदि पर विजय के साथ जोड़ते थे। जब कभी | आपके जीवन में किसी प्रकार की विषम परिस्थितियां आतीं तो आप उद्विग्न, उत्तेजित एवं असंतुलित नहीं हुए। शारीरिक पीड़ा की स्थिति में भी आप यही चिन्तन करते- "पीड़ा शरीर को हो रही है, मैं तो शरीर से भिन्न हूँ, मेरा रोग-शोक पीड़ा से कोई संबंध नहीं है। मैं तो आनन्दमय हूँ।" आपने इस प्रकार के चिन्तन से तन की पीड़ा को विलीन होते देखा। आपने प्रवचन में एक बार नसीराबाद छावनी का ऐसा प्रसंग भी , जो 'जिनवाणी' सुनाया, एवं 'झलकियाँ जो इतिहास बन गई' पुस्तक में प्रकाशित भी हुआ, यथा- "बात नसीराबाद छावनी की है। सहसा सीने में गहरी पीड़ा उठीं। मुनिजन निद्रा में थे। मैंने उस वेदना को भुला देने हेतु चिन्तन चालू किया"पीड़ा शरीर को हो रही है, मैं तो शरीर से अलग हूँ। शुद्ध, बुद्ध, अशोक और नीरोग। मेरे को रोग कहाँ? मैं तो हड्डी पसली से परे, चेतन आत्मा हूँ। मेरा रोग, शोक, पीड़ा से कोई संबंध नहीं है। मैं तो आनन्दमय हूँ। कुछ पलों में देखता हूँ कि मेरे तन की पीड़ा न मालूम कहाँ विलीन हो गई।"
आप ध्यान में क्या करते थे, इसका विवरण उपलब्ध नहीं है, किन्तु एक अध्यात्मयोगी का ध्यान बाह्य