Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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आमुख निवास कर लिया था। उनके हृदय-कमल में आपकी गुणवत्ता एवं योग्यता की छवि स्पष्ट अंकित हो गयी थी।
पूज्य गुरुदेव आचार्यप्रवर श्री शोमाचन्द्र जी म.सा. का सान्निध्य आपको दीर्घकाल तक न मिल सका। संवत् 1983 के जोधपुर चातुर्मास में श्रावण कृष्णा अमावस की अन्धेरी रात ने चरितनायक पर से गुरुदेव का साया छीन लिया। लगभग पौने चार वर्ष तक संघ-व्यवस्थापन का दायित्व वरिष्ठ सन्त स्वामीजी श्री सुजानमल जी म.सा. ने सम्हाला तथा स्वामीजी श्री भोजराज जी म.सा. उनके परामर्शदाता रहे। संघ-व्यवस्थापक स्वामीजी श्री सुजानमल जी म.सा. एवं श्रावक-समुदाय की प्रबल भावना से संवत् 1987 की अक्षय तृतीया के अक्षय दिवस पर ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र से सुसम्पन्न, चतुर्विध संघ के गौरव मुनि श्री हस्ती को जोधपुर में आचार्य की चादर ओढ़ाकर संघनायक का गुरुतर उत्तरदायित्व सौंपा गया। मात्र सवा उन्नीस वर्ष की वय में | योग्यता के आधार पर आचार्य पद पर आरूढ़ होने वाले आप जैन इतिहास में एक विरल सन्त थे।
आचार्य-पद पर अधिष्ठित होने के पश्चात् संघ-व्यवस्था का संचालन आपने अपने वरिष्ठ संतों के बहुमानपूर्ण सहयोग के साथ प्रारम्भ किया। पंच परमेष्ठी के तृतीय महान् पद पर आरूढ़ होने के पश्चात् भी वहीं || विनम्रता, वही निरभिमानता और वही गुणग्राहकता आपके व्यक्तित्व-निर्माण के क्रम को आगे बढ़ाती रही।
पूज्य श्री मन्नालालजी म.सा. के साथ मन्दसौर में छेदसूत्रों की वाचना के समय गुणग्राहक चरितनायक ने आपसे जो नये अनुभव सीखे, वे आपके ही शब्दों में-“मन्दसौर में आपके साथ रहने का अवसर मिला। आपका बहुमानपूर्ण वात्सल्य कमी भुलाया नहीं जा सकता। आपके साथ छेदसूत्र की वाचना और प्राचीन सन्तों के जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव सुने। श्रमण-व्यवहार में नित्य उपयोगी कई नवीन बातें सीखीं।" आपने पूज्य श्री आत्माराम जी म.सा. से नियमित ध्यान की अमर प्रेरणा ग्रहण की तथा स्वाध्याय की अभिरुचि दृढतर हुई। पूज्य श्री जवाहरलाल जी म.सा. के विचारों एवं प्रवचन कला ने भी आपको प्रभावित किया, आप ही के शब्दों में-"आपके विचारों एवं प्रवचन कला से मन अत्यधिक प्रभावित हुआ। आप जो कुछ भी कहते थे, बहुत सरल एवं मिठास भरे शब्दों में कहते और हदयपटल पर उसका चित्र खींच देते थे। आपके अनुभवपूर्ण विचारों से भी जीवन में बड़ी प्रेरणा मिली, बल प्राप्त हुआ।" शास्त्रज्ञ श्रावक श्री लखमीचन्द जी-मन्दसौर, श्री केसरीमल जी सुराणा-रामपुरा एवं धार के पोरवाल सुश्रावक से आपने कतिपय आगमिक धारणाएं ग्रहण की।
आचार्यप्रवर की सरलता, गुणिषु प्रमोद की भावना, गुणग्राहक दृष्टि आदि को देखकर सद्गुणों ने सहज ही आपमें गुणसमुद्र का रूप ग्रहण कर लिया।
आपकी लघु देह में महान् आध्यात्मिक सन्त का विशाल व्यक्तित्व पुंजीभूत हो रहा था। घण्टों एक आसन से बिना सहारे बैठे रहने की क्षमता, विहारकाल में स्फूर्तिपूर्वक ईर्या समिति सम्मत पाद-निक्षेप,निरालसतापूर्वक श्रमणाचार की प्रत्येक क्रिया में पराक्रम आदि अनेक गुण आपकी आध्यात्मिक ऊर्जा के ही प्रतिबिम्ब थे। आपका तेजस्वी उनत माल, करुणा सरसाते एवं निर्विकारता का बोध देते मास्वर नयन, अध्यात्म एवं साधना में परिपक्वता दर्शाता आभामण्डल, प्रत्येक प्राणी को अभयदान का संकेत करता दक्षिण हस्त-ये सब निहार कर सेवा में उपस्थित भक्त को दर्शनमात्र से ही आत्मसंतोष एवं परम-शांति का अनुभव होता। मेरुदण्ड को सीधा रखने हेतु बजासन, पद्मासन आदि विभिन्न आसनों के प्रयोगों से आपने शरीर को साधना का ही साधन बनाया। रुग्णावस्था में शरीर को शिथिल कर मनोबल से उसे शीघ्र स्वस्थता प्रदान करना, देह से अपने को मिन्न समझकर उसे नीरोग बनाना आपकी साधनाशीलता के साधारण कार्य बन गए थे। पद-कमल में पद्मरेख आपके वैशिष्ट्य एवं कर्मयोगी होने की प्रतीक थी। आपका विश्वास था कि पुरुषार्थ एवं पराक्रम से ही साधक अपनी मंजिल तय कर सकता है। पुरुषार्थ तो माग्य-परिवर्तन का भी प्रमुख सम्बल है, तो फिर साधना का क्यों न हो? अतः मुनिजीवन में प्रवेश करने के साथ ही आपने पुरुषार्थ किंवा संयम में पराक्रम को अपना प्रमुख साधन |
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