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पारिभाषिक शब्दावली
(४५) मनः पर्यवज्ञान - मनस्त्व के द्वारा परिणत हुआ द्रव्यों का पर्यव मनः पर्यव है उसका ज्ञान मनः पर्यव ज्ञान है अथवा नाना प्रकार की अवस्था वाले मनोद्रव्य के पर्याय का जो ज्ञान है वह मनःपर्यवज्ञान कहलाता है । ( ३.८५०-८५१)
(४६) योनि - तैजस और कार्मण शरीर वाला जीव औदारिक शरीर के योग्य स्कन्ध द्वारा जल ग्रहण हेतु जहाँ जुड़ता है, उस स्थान को योनि कहते हैं। (३.४३)
(४७) रज्जु - असंख्यात कोटाकोटि योजन का एक रज्जु होता है। स्वयंभूरमण समुद्र के पूर्व और पश्चिम दोनों वेदिकाओं के बीच जितना अन्तर है वह एक रज्जु का माप होता है । ( 9. ६४-६५)
(४८) लेश्या - कृष्ण आदि द्रव्य के संयोग से स्फटिक रत्न का जिस प्रकार अन्य नया परिणाम होता है वैसे ही कर्मों के संयोग से आत्मा का परिणाम लेश्या कहलाता है । ( ५.२८५) (४६) व्यंजनावग्रह - व्यंजनावग्रहो ऽस्पष्टतरावबोधलक्षणः अर्थात् अत्यन्त अस्फुट ज्ञान
व्यंजनावग्रह का लक्षण है। ( ३.७०६)
(५०) वर्तना - द्रव्य और परमाणु आदि की परमाणु रूप में रहने की स्थिति अथवा परमाणु का नया तथा पुराने रूप में रहना दोनों ही वर्तना है । ( २८.५८)
(५१) वर्गणा - समान गुण वाले सजातीय पुद्गलों का समूह वर्गणा कहलाती है । ( ३५.४)
(५२) समय काल की सूक्ष्मतम इकाई जिसका विभाग नहीं किया जा सकता है वह समय कहलाता है । (२८.२०३)
(५३) समुद्घात - सम अर्थात् एकीभाव या समान भाव के योग से वेदना आदि भोगकर आत्मा द्वारा सम्बद्ध कर्मों का उद्घात अर्थात् नाश करना समुद्घांत कहलाता है । ( ३.२१२)
(५४) साधारण वनस्पति- जिस अनन्तकायिक जीव का उच्छ्वास, निःश्वास और आहार साधारण होता है, वह साधारण वनस्पति कहलाती है । (५.७५)
(५५) सूच्यंगुल - एक प्रदेश मोटी, चौड़ी तथा एक अंगुल लम्बी इस तरह आकाश प्रदेश की श्रेणि को सूच्यंगुल कहते हैं। (१.४८)
(५६) सूक्ष्म एकेन्द्रिय- सूक्ष्म नामकर्म के योग से जो सूक्ष्म रूप प्राप्त करते हैं और चर्मचक्षु के लिए अगम्य हैं, वे सूक्ष्म एकेन्द्रिय कहलाते हैं। (४.३०)
(५७) संख्यातकाल - एक समय से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक का काल संख्यातकाल कहलाता है। (२८.२०२)