________________
161. नो कर्म किसे कहते हैं? ___ उ. कर्मरूप में भोगने के बाद आत्मा से छूटे हुए कर्म पुद्गल-द्रव्य नो कर्म
कहलाते हैं। 162. 'कर्म' वर्ण, गंध, रस और स्पर्शवान क्यों हैं? उ. इसलिए कि कर्म पुद्गल है। पुद्गल की परिभाषा ही वर्ण, गंध, रस और
स्पर्शवान है। 163. ज्ञानावरणीय आदि कर्म में स्कन्ध देश, प्रदेश और परमाण में से कितने?
उ. तीन-स्कन्ध, देश, प्रदेश। (परमाणु अति सूक्ष्म होने से ग्रहण होता ही नहीं
है।)
164. ज्ञानावरणीय आदि कर्म कंठ से नीचे या ऊपर अथवा पूरे शरीर के किस
भाग में है? उ. सर्व प्रदेश की अपेक्षा से दोनों हैं। पूरे शरीर में व्याप्त है। 165. ज्ञानावरणीय आदि कर्म किस क्षेत्र के पदगल लेते हैं? उ. जो जीव जिस क्षेत्र में होते हैं उस क्षेत्र के ही पद्गल लेते हैं। (आत्म-प्रदेश
से स्पर्श किये हुए कर्म वर्गणाओं को ही ग्रहण करते हैं।) 166. ज्ञानावरणीय आदि कर्म निरन्तर बंधते हैं या अन्तर रहित?
उ. सात कर्म निरन्तर बंधते हैं। आयुष्य कर्म जीवन में एक बार बंधता है। 167. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं अन्तराय ये तीन कर्म भाषक के बंधते हैं
या अभाषक के? उ. समुच्चय रूप से भाषक-अभाषक दोनों के ही बंधते हैं। भाषक में सरागी
एवं अभाषक में एकेन्द्रिय जीवों तथा विग्रह गति में इनका बंध होता है। केवली समुद्घात एवं अयोगी अवस्था में जीव अभाषक होता है पर ये कर्म उसके नहीं बंधते हैं। वीतरागी इन दो अवस्थाओं को छोड़कर भाषक होता है पर ये तीनों कर्म वीतरागी के उस अवस्था में भी नहीं बंधते हैं। मोह कर्म का बंध नौवें गुणस्थान से आगे नहीं होता। अत: दसवें गुणस्थान वाले
सरागी के भी मोह का बंध नहीं होता है। आगे तो बंधता ही नहीं है। 168. चरम और अचरम जीवों के कर्मबंध किस रूप में होते हैं? उ. चरम-अचरम दोनों के समुच्चय रूप से आठों कर्मों का बंध होता है। यदि
भेद करें तो अचरम जीवों सिद्धों के कर्मों का बंध नहीं होता है। अभव्य भी अचरम होते हैं। उनके आठों कर्मों का बंध होता है। चरम के दो भेद
40 कर्म-दर्शन