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मुनि शक्तिगुप्त ने कहा—- वासुदेव ! इस परिषद् में एक जीव ऐसा है, जो उच्च गोत्र से नीच गोत्र में आ गया है। वह जीव है तुम्हारा पादुकारक्षक अंगभक्त। यह पिछले जीवन में महाविदेह क्षेत्र में छः खण्ड का अधिपति चक्रवर्ती का ज्येष्ठ पुत्र विद्युत्वाहन था। इसे अपने ऐश्वर्य पर बहुत अहंकार था । इतना अहं तो इसके पिता को भी नहीं था। यह अपने राजघराने के अलावा सबको तुच्छ मानता था। बड़े-बड़े राजाओं से तो वह चप्पलें उठवाता था।
विद्युत्वाहन ने मंत्री-परिषद् को भी अपने नियंत्रण में कर रखा था। पिता का प्रेम अधिक होने से वह अधिक उच्छृंखल बन गया था। सभी यह समझने लगेवास्तविक राज्य चक्रवर्ती नहीं करता उसका पुत्र करता है । इसलिए उसकी चापलूसी अनिवार्य है।
अहं में विद्युत्वाहन इतना उन्मत्त हो गया कि वृद्ध, अनुभवी, विद्वान कोई भी क्यों न हो? यदि उनसे अहं की पुष्टि नहीं होती तो उन्हें भी तत्काल अपमानित कर देता था। उन्हें ऐसा राजनीतिक धक्का देता कि वह दर-दर की ठोकरें खाने वाला बन जाता था। उसे कुछ चापलूस मित्र भी मिल गये, जो उसे उकसाते रहते थे। विद्युत्वाहन हजूरों की भीड़ में अपनी शक्ति भूल गया । चापलूसों की चाटुकारिता में आकर अपने व्यक्तित्व का गलत अनुमान लगाने लगा ।
एक बार वह अपने साथियों के साथ जंगल में घूमने गया । उस जंगल में एक तपस्वी संन्यासी बैठा था । वज्रवाहन ने देख लिया और सोचने लगा- मेरे आने पर भी यह संन्यासी खड़ा नहीं हुआ, मेरा सत्कार नहीं किया। बस इतने मात्र से क्षुब्ध हो उठा, मेरा सम्मान न करने वाले को धरती पर जीने का अधिकार नहीं है। इस संन्यासी को ऐसी शिक्षा दूं, यह जीवन भर याद रखे।
वज्रवाहन ने घोड़े को संन्यासी की तरफ मोड़ा। संन्यासी शान्तभाव से बैठा था। उसने घोड़े को संन्यासी के ऊपर चढ़ा दिया। संन्यासी की तूंबी टूट गई तथा कुछ चोट भी आई। संन्यासी इस अप्रत्याशित घटना से हतप्रभ रह गया। उसने राजकुमार को देखा, तो वह अपने साथियों के साथ कुटिलता से हंस रहा था। इसे देखकर संन्यासी को गुस्सा आया, किन्तु वह खामोश रहा।
जब पुनः उसको अपनी तरफ आते देखा, तो चेतावनी देते हुए संन्यासी ने कहा—खबरदार! इधर आ गये तो, एक बार क्षमा कर सकता हूँ। दूसरी बार अपराध क्षमा करने की मेरी क्षमता नहीं है। अब चला जा यहाँ से!
संन्यासी के इतना कहते ही राजकुमार वज्रवाहन तिलमिला उठा और सोचने लगा—इसकी इतनी हिम्मत कैसे हो गई? मुझे ऐसा कहने वाला यह है कौन? ऐसे व्यक्ति को जीवित रखना मानवीय अपराध है। अभी इसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा। साथियों ने इसे और भड़का दिया । वह संन्यासी की तरफ घोड़े को आक्रामक 288 कर्म-दर्शन