Book Title: Karm Darshan
Author(s): Kanchan Kumari
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 295
________________ हो गया। वहाँ से तू मरकर यहाँ गुणभद्र बन गया। पुण्योदयं से तुम्हें समस्त भौतिक सामग्री उपलब्ध है किन्तु नगरवासियों को दान देने से रोका जिसके फलस्वरूप दान देने में कोई न कोई बाधा उपस्थित होती है। दूसरे की वस्तु देने पर कोई कठिनाई नहीं आयेगी। स्वयं के लिए वस्तु होने पर भी बाधा आ रही है? अभी कुछ समय तक इस कर्म प्रकृति को भोगना पड़ेगा। दूसरा युवक विमलभद्र जिज्ञासा के स्वर में बोला-गुरुदेव! मेरी बौद्धिक प्रतिभा अव्वल दर्जे की है, किन्तु उसमें भौतिक या आध्यात्मिक लाभ नहीं आ रहा है। कारण स्पष्ट करते हुए गुरुदेव ने कहा-यह भी अन्तराय कर्म की निष्पत्ति है। पिछले जन्म में तू युगभद्र नाम से सरकारी अधिकारी था। राजा तुम्हारी बात पर विशेष ध्यान देता था। राजा का जन्म दिन आया। उसका यह चिन्तन था—गरीब व्यक्तियों को एक-एक हजार मुद्राएं देकर स्वावलम्बी बनाया जाये। गरीबों की सूची बन कर तैयार हो गई और सारी व्यवस्थाएं भी हो गईं। तू शहर के बाहर था। गांव में आते ही योजना के स्वरूप को सुना। सोचने लगा-एक-एक हजार मुद्राएं न दी जाये तो ठीक है। नहीं तो गरीब भी सम्पन्न हो जाएंगे फिर हमें कौन पूछेगा। इसी चिन्तन के साथ कि फिर वैभव का अंकन कौन करेगा? यह सोच तू राजा के पास गया और योजना के बारे में राजा को विस्तार से बताया। तमने कहा-ऐसा करने से राज्य में अकर्मण्यता बढ़ जायेगी। राजभण्डार खाली हो जायेगा। अत: दोनों बात अवांछनीय है। व्यवसाय के इच्छुक व्यक्तियों को ऋण दिया जा सकता है। राजा को बात जंच गई। राजा ने पहली योजना को स्थगित कर दिया। तुम्हारी चाल सफल हो गई, किन्तु बेचारे हजारों गरीब लाभ से वंचित रह गये। उस समय तुम्हारे लाभ-अन्तराय कर्म का बंध हुआ। उन कर्मों को तू यहाँ भोग रहा है। __ बद्धांजलि हो तीसरे युवक जीवनभद्र से पूछा-आचार्यवर! धन-वैभव बहुत है। सुख-सुविधा के साधन उपलब्ध हैं। पर न तो मैं खा सकता हूँ, न ही कुछ भोग सकता हूँ, केवल देख सकता हूँ। गले में गांठ होने से मात्र तरल पदार्थ ही पी सकता हूँ, ठोस पदार्थ नहीं खा सकता। शारीरिक व्याधि के कारण मैं शरीर का सुख तथा अन्य सुख भी नहीं भोग सकता। इसका क्या कारण है? । आचार्यश्री-जीवनभद्र! इसका नाम है-भोगान्तराय। तू पूर्वभव में सेनापति दंडवाहन था। स्वभाव से क्रूर था। सेना को कड़े अनुशासन में रखता 294 कर्म-दर्शन

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