Book Title: Karm Darshan
Author(s): Kanchan Kumari
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 293
________________ एक बार शहर में ज्ञानी आचार्य पधारे। मम्मण सेठ ने पूछा-आचार्य भगवन् ! मेरे पास इतनी सम्पत्ति होते हुए भी मैं दाल और रोटी, इन दो द्रव्यों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं खा सकता इसका क्या कारण है? आप मेरी जिज्ञासा का समाधान करवाएं। आचार्यश्री ने उत्तर देते हुए कहा—सुनो! सेठ मम्मण! पिछले जन्म में तुम्हारे नगर में नगरसेठ के घर पर पुत्रोत्सव मनाया, उस प्रसंग पर नगरसेठ ने पूरे नगर में (हरिजन से लेकर महाजन तक) प्रत्येक घर पर दो-दो केसरिया-मोदक बांटे। तुमने उन दो मोदकों को दूसरे दिन के लिए रख दिये। दूसरे दिन मुनि गोचरी के लिए पधारे। तुमने भावना भायी। घर में गया। पत्नी कहीं बाहर गयी हुई थी। तुमने 2-3 डिब्बे खोले कुछ नहीं मिला। चौथा डिब्बा खोला। उसमें दोनों केसरिया मोदक रखे हुए थे। तुमने उत्कृष्ट भावों से साधु को दोनों केसरिया मोदक बहरा दिये। मुनि चले गये। पीछे से पड़ोसिन आयी। उसने कहा—'अरे! केसरिया मोदक खाये या नहीं? मोदक बहुत स्वादि और शक्तिवर्धक हैं। एक-एक मोदक लाख-लाख रूपयों की कीम्मत वाले हैं। आज तक मैंने और तुमने ऐसे मोदक कभी खाये नहीं और संभवतः भविष्य में मिलने वाले भी नहीं हैं।' मोदक की प्रशंसा सुनकर मुनि के पीछे भागा-दौड़ा और आवाज दी। महाराज-रुको! रुको! मुनि के नीचे से पैर और ऊपर से सिर जल रहा था। फिर भी बेचारे मुनिजी रुके। तुम्हारे भी मुनि तक पहुंचते-पहुंचते सांस भारी हो गया। हांफते-हांफते तुमने मुनिजी से कहा-महाराज! मेरे मोदक मुझे वापस दे दो। बहुत आग्रह किया। परन्तु मुनिजी ने बार-बार कहा—साधु के पात्र में आया हुआ वापस देना नहीं है, देना नहीं है। तुम माने नहीं। दोनों मोदक झोली में ऊपर वाले पात्र में ही रखे हुए थे। उसमें तुमने हाथ डालकर एक मोदक निकाल लिया। उस मोदक को लेकर तू घर की ओर चला गया। रास्ते में मोदक खाते हुए चल रहा था और पश्चात्ताप भी करता-कि अरे! वास्तव में पड़ोसिन ने सही कहा है। यदि मैं यह मोदक नहीं खाता, इसके स्वाद का अनुभव नहीं करता तो मुझे जीवन भर पश्चात्ताप रहता। पड़ोसिन ने मुझे बताकर मेरे पर बहुत बड़ा उपकार किया है। अर्थात् मुनि को उत्कृष्ट भावों से दान दिया उसके फलस्वरूप तुम्हें अपार संपत्ति मिली। तुमने दान देकर पश्चात्ताप किया उस समय तुम्हारे भोग अन्तराय कर्म का बंध हुआ, जिसके फलस्वरूप तुम दाल-रोटी के सिवाय कुछ भी नहीं खा सकते। . 292 कर्म-दर्शन 125

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