Book Title: Karm Darshan
Author(s): Kanchan Kumari
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 290
________________ रूप में लाने लगा। योगी ने पुनः चेतावनी दी। किन्तु उसे टोकना आग में घी डालना हुआ। संन्यासी गुस्से में तत्काल उठा, सात हाथ पीछे हटा। संन्यासी को पीछे हटते देखकर सब मजाक उड़ाने लगे, राजकुमार ने कहा-कहीं पर जा, अब तो मारकर ही दम लूंगा। संन्यासी ने तेजोलब्धि का प्रयोग किया। मुख से आग उगलने लगा। सामने आग ही आग फैल गई। देखते-देखते राजकुमार सहित उसके अनेकों साथी आग की लपेट में आकर स्वाहा हो गये। राजकमार के दो साथी कछ पीछे थे। उन्होंने घोड़ों को दौड़ाया, शहर में आये। चक्रवर्ती को सूचना दी। चक्रवर्ती संन्यासी के पास आया, क्षमा मांगी। तब कहीं जाकर संन्यासी शान्त हुआ। अग्निप्रकोप मिटा।। चार ज्ञान के धारक मुनि शक्तिगुप्त ने अन्त में कहा-विद्युत्वाहन वहाँ से मरकर चौथी नरक में गया। भारीवेदना को भोगकर नरक से निकला और यह तुम्हारा पादुकारक्षक अंगभक्त बना है। पूर्व जन्म में नीच गोत्र कर्म का बंधन किया। जिसके फलस्वरूप यह अनैश्वर्यशील तथा दीन बना है। (39) 'ढंढ़णकुमार' श्रीकृष्ण की ढंढ़णा नामक रानी के पुत्र थे। वे भगवान् नेमिनाथ के उपदेश से प्रभावित होकर संसार से विरक्त हो उठे और पिताश्री की आज्ञा लेकर साधु बने। परन्तु पता नहीं कैसा गहन अन्तराय कर्म का बंधन था कि उन्हें आहारपानी की प्राप्ति नहीं होती थी। किसी दूसरे साधु के साथ चले जाते तो उन्हें भी नहीं मिलता था। एक बार ढंढ़णमुनि ने अभिग्रह कर लिया कि मुझे मेरी लब्धि का आहार मिलेगा तो आहार लूंगा अन्यथा नहीं। भिक्षा के लिए प्रतिदिन जाते, पर आहार का सुयोग नहीं मिलता। छः माह बीत गये। शरीर दुर्बल हो गया। ___ एक बार ढंढ़णमनि भिक्षार्थ गये हए थे। श्रीकृष्ण ने भगवान नेमिनाथ से प्रश्न किया-भगवन्! 18000 साधुओं में कौनसा मुनि साधना में सर्वश्रेष्ठ है? भगवान नेमिनाथ ने ढंढ़णमुनि का नाम बताया और उनके समता की सराहना की तथा कहा कि उसने (ढंढ़णमुनि ने) अलाभ परीषह को जीत लिया। श्रीकृष्ण उनके दर्शन करने को उत्सुक हो उठे। भिक्षार्थ भ्रमण करते ढंढ़णमुनि के दर्शन किये, पुनः पुनः स्तवना की। कर्म-दर्शन 289

Loading...

Page Navigation
1 ... 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298