Book Title: Karm Darshan
Author(s): Kanchan Kumari
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 282
________________ विजयपाल — क्या, ये देवगति से आये हैं? मुनि — हां, विजयपाल ! चारों पुत्रों ने पूछा – मुनिश्रेष्ठ ! हमने पिछले जन्म में ऐसा क्या किया ? जिससे हम अलग-अलग देवयोनियों में देव बनें। कृपा कर आप हमारी जिज्ञासा को शांत करें। भवनपति ज्ञानभानु अणगार ने कहा – तुम्हारे में सबसे बड़ा भाई युगकांत पूर्वजन्म में कावेरी नदी के तट पर संन्यासी बन तप साधना में संलग्न था । शरीर से श्यामवर्ण और अभद्र रूप होने से पारिवारिकजन इनकी उपेक्षा करते थे। उपेक्षा भाव से तंग आकर घर छोड़ दिया और कावेरी नदी के किनारे झोपड़ी बना कर वहां तप साधना करने लग गया। लोगों में इसकी तपस्या की व्यापक प्रतिक्रिया हुई। पहले उपेक्षित था, और अब तपस्या के कारण उचित सम्मान मिलने लगा। अन्त में तपस्या में ही मरा और भवनपति देवों में सुवर्णकुमार में महर्द्धिक देव बना । वहाँ से च्यवकर यह तुम्हारा बड़ा भाई बना है। ज्योतिष्क तुम्हारा दूसरा भाई विश्वकान्त अन्तरवैराग्य से निर्ग्रन्थ परम्परा में प्रियगुप्त नामक साधु बना। शास्त्रों का विशेष अध्ययन किया। वक्तृत्व कला में दक्ष होने के कारण आचार्यश्री ने इसको बहिर्विहारी बना दिया। विचरते-विचरते वे लोमा नगरी पधारे। वहाँ के लोग श्रद्धावान् थे, किन्तु ज्ञानवान् नहीं। वहाँ प्रियगुप्त मुनि का अच्छा प्रभाव रहा। धीरे-धीरे लोगों से रागात्मक अनुबंध भी होने लगा। साताकारी क्षेत्र होने से वहाँ चातुर्मास किया । चातुर्मास होने से संतों के साथ वहाँ के लोगों का रागात्मक अनुबंध और अधिक प्रगाढ़ हो गया । लोगों की प्रार्थना पर प्रियगुप्त मुनि ने स्थान आदि सभी सुविधाओं को देखकर वहीं रहने का निर्णय कर लिया। अब उनको कौन समझाये ? आचार्यश्री काफी दूर थे। उनको समझा सके, ऐसा कोई दूसरा साधु नहीं था। इस कारण प्रियगुप्त जीवन भर वहाँ जमे रहे। फिर भी उनकी प्रभावना में न्यूनता नहीं आई, साधुत्व की चर्या में अन्य शिथिलता नहीं आने दी। उनके सहवर्ती साधु भी उन जैसे ही हो गये थे। नियमविरुद्ध एक ही स्थान पर रहने से प्रियगुप्त संयम विराधक हो गये, जिससे वहाँ से मरकर ज्योतिष-मण्डल में शुक्रग्रह के अधिपति बने। वहाँ से ज्योतिष - देवायु भोगकर तुम्हारा दूसरा भाई विश्वकान्त बना है। कर्म - दर्शन 281

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