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446. श्रुतज्ञान का महत्त्व क्या है? उ. श्रुत की आराधना से जीव अज्ञान का क्षय करता है और राग-द्वेष आदि
उत्पन्न होने वाले मानसिक संक्लेशों से बचता है। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार-सामायिक (आवश्यक) से बिन्दुसार (चौदहपूर्व) पर्यन्त शास्त्र श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान का सार चारित्र है। चारित्र
का सार निर्वाण है। 447. श्रुत परावर्तन की निष्पत्ति क्या है? उ. श्रुत परावर्तन की चार निष्पत्तियां हैं
* एकाग्रता-श्रुतपरावर्तन से चित्त एकाग्र होता है। * महानिर्जरा-स्वाध्याय प्रत्यया से महान निर्जरा होती है। * अपरिमंथ—कालज्ञान के लिए सूर्यछाया का मापन नहीं करना पड़ता। ___ अतः सूत्र-अर्थ का व्याघात नहीं होता। * स्वायत्तता—जैसे छद्मस्थ साधु का ज्ञान सूर्यछाया के अधीन होता है,
वैसे श्रुत परावर्तन से भावित साधु का पौरुषी आदि कालविषयक ज्ञान
पराधीन नहीं होता। 448. श्रुतज्ञान का विषय क्या है? उ. श्रुतज्ञानी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से सर्व द्रव्यों, क्षेत्रों, काल
और भावों को जानता है, देखता है। "श्रुतज्ञानी अदृष्ट द्वीप-समुद्रों और देवकुरु-उत्तरकुरु के भवनों की आकृतियों (संस्थानों) का इस रूप में आलेखन करता है कि मानो उन्हें साक्षात् देखा हो। अतः श्रुतज्ञानी जानता है, देखता है—यह सही है।"
-आवश्यक चूर्णि-1 पृ.-35-36 449. जघन्य श्रुत का हेतु क्या है? उ. 'स्त्यानर्द्धि निद्रायुक्त ज्ञानावरण के उदय के कारण एकेन्द्रिय जीवों के अक्षर
के अनन्तवें भाग जितना सर्वजघन्य चैतन्य सदा उद्घाटित रहता है, वह
कभी आवृत नहीं होता। 450. जीवों में श्रुतज्ञान विशुद्धि का तारतम्यता का क्रम किस प्रकार का है? उ. अनुत्तरोपपातिक देवों का श्रुतज्ञान सर्वाधिक विशुद्ध होता है। उससे
असंख्यातगुण परिहीन श्रुतज्ञान होता है उपरितन ग्रैवेयक देवों का। इस प्रकार क्रमश: असंख्येयगुण परिहीन की श्रृंखला में पृथ्वीकायिक जीवों का श्रुतज्ञान सर्वाधिक अविशुद्ध होता है।
102 कर्म-दर्शन