________________
वे उससे क्षमायाचना करने प्रवृत्त हए। इतने में ही साध्वी को केवलज्ञान हो गया। देवताओं ने उसकी महिमा की। वे दोनों पति-पत्नी वहाँ आए। साध्वी से कारण पूछने पर उससे पूर्वभव का कथन किया। वे भी प्रव्रजित हो गए।
आव. नि. 583
(28)
उद्योत नगरी के राजा जयवाहन को इस बात का गहरा अनुताप था-उसके कई मित्र साधु बन गये, कई उच्चकोटि के श्रावक बन गये। मैं साधुत्व से तो कोसों दूर हूँ पर श्रावकत्व भी स्वीकार नहीं कर सका। आत्मकल्याण त्याग और संयम से होगा, राज्य अथवा भोगविलासिता नहीं।
राजा कई बार यह भी सोचता था—मेरे मित्र साधु अथवा श्रावक बन गये। मेरे इस ओर कदम आगे क्यों नहीं बढ़े। मैं पीछे क्यों रहा।
__ एक बार तपस्वी इन्द्रियगुप्त अणगार विचरते-विचरते उद्योत नगरी पधारे। संत तपस्वी थे, उनकी चारों ओर प्रसिद्धि भी थी। उनके जीवन की यह महत्त्वपूर्ण बात थी-अनेक देवता उनके परमभक्त थे। प्रायः मुनि की उपासना में ही रहते। जब मुनि विहार करते तो देवता उन पर छाया कर देते थे। जहाँ पारणा करते वहाँ पुष्पवृष्टि कर देते थे। इससे पूरे राज्य में उनका भारी प्रभाव था। मुनि अवधिज्ञानी
और मन:-पर्यवज्ञानी भी थे। उनको वचनसिद्धि प्राप्त थी। उनके प्रवचन में जैनजैनेतर सबकी उपस्थिति रहती। उद्योतनगरी में भी ऐसा हुआ। राजा जयवाहन स्वयं अपने राजपरिवार के साथ वहाँ के उद्यान में दर्शनार्थ गया। प्रवचन सुना। सहवर्ती साधुओं में जो अपने साथी थे उनको देखा और उनका सम्यक् विकास सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ, किन्तु स्वयं के त्यागमार्ग से पीछे रह जाने का खेद भी था। उसने तपस्वी मुनि से इसका कारण पूछा।
तपस्वी इन्द्रियगुप्त ने कहा-राजन्! यह पूर्वजन्म के कृत कर्मों का फल है। तूं पिछले जन्म में लाट देश का राजा था। तुम्हारा नाम था-जयवर्धन। तुम्हारे दो पुत्र थे—सूर्यवर्धन और चन्द्रवर्धन। लाट देश में साधुओं का आवागमन कम ही होता था। सूर्यवर्धन अपनी माँ से मिलने के लिए दूसरे नगर में गया हुआ था। वहां उसे संतों का योग मिला, प्रवचन सुना और तात्त्विक ज्ञान प्राप्त किया। साथ-साथ उसने कुछ संकल्प भी स्वीकार किये।
270 कर्म-दर्शन