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राजा ने परिषद् में खड़े होकर संयम शिखर से गिरने का कारण पूछा ? मुनि इन्द्रियगुप्त ने कहा—राजन् ! यह सब पूर्वजन्म में कृत कर्मों का परिणाम है। तुम पूर्व जन्म में मलेश्वरम् के राजा थे। जब तुम राजा बने तब राज्य के कार्यों का निरीक्षण किया। उसी दिन वहां दीक्षा हो रही थी। तुमने दीक्षा पर रोक लगा दी और साथ ही यह घोषणा करवा दी — जो साधु पुनः गृहस्थी में आना चाहता हो, तो मैं उन्हें सम्पूर्ण सुख-सुविधायें प्रदान करूंगा, इस घोषणा से कई अस्थिर चित्त वाले मुनि होने के बजाय गृहस्थ हो गये। संयम धर्म का ह्रास हुआ। तुम्हारे चारित्र मोहनीय कर्म का कठोर बंधन हो गया।
एक बार तुम्हें अपने मित्र राजा के नगर में संतों का योग मिला। उनसे धर्म चर्चा हुई। त्याग का महत्त्व समझा, तब तुमने दीक्षा पर लगाई रोक को हटाया तथा लोगों को धर्म करने की प्रेरणा दी। दीक्षा पर लगाई रोक पर गहरा अनुताप किया, जिससे काफी कर्म हलके हो गये, किन्तु कुछ कर्म निकाचित बंध गये थे । वे नहीं टूटे, जिससे तुम्हें संयम पथ से हटना पड़ा।
राजा तुम्हारी संयम पर्याय उस समय मेरे से उज्ज्वल थी, किन्तु कर्मोदय से सब कुछ चौपट हो गया। अब भोगावली कर्म का अन्त आ चुका है। जागो ! अपनी खोई सम्पत्ति को पुनः प्राप्त करो ।
राजा सुनकर प्रतिबुद्ध हुआ । अपने लड़के को राज्य का दायित्व सोंपकर, स्वयं महारानी सहित संयमी बनकर साधना में संलग्न बना ।
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आयुष्य कर्म / नरक आयुष्य
सावत्थी नरेश भद्रबाहु अपने समय का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा था। आसपास के राज्यों पर उसका अच्छा प्रभाव था। राजा भद्रबाहु ने सभी राजाओं का एक 'महिपति मण्डल' बनाया। वर्ष में एक बार अनिवार्य रूप से सभी एकत्र होते । सीमा सम्बन्धी या पारस्परिक कोई भी उलझन को सुलझाने के लिए राजाओं की कुछ समितियां बनी हुई थीं। उसमें प्रत्येक समस्या का समाधान निकाल लिया जाता था। अगर हल नहीं निकलता तो वार्षिक सम्मेलन में सुलझा लिया जाता था, किन्तु शस्त्र उठाना सर्वथा वर्जनीय था ।
274 कर्म-दर्शन