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एक बार पालक श्रावस्ती नगरी में आया। प्रसंगवश खंधककुमार से धार्मिक चर्चा चल पड़ी। खंधक के तर्क-पुरस्सर विवेचन तथा जैनधर्म के गौरवपूर्ण प्रतिष्ठापन से पालक का खून खौल उठा। खंधक द्वारा प्रस्तुत किये गये अकाट्य तर्कों के सामने पालक को बहुत ही बुरी तरह से मुंह की खानी पड़ी, पर उपाय क्या? मन ही मन तिलमिलाता हुआ कुंभकटकपुर लौट आया। उसने खंधक के प्रति गांठ बांध ली।
भगवान श्री मुनिसुव्रत स्वामी एक बार श्रावस्ती नगरी में पधारे। राजकुमार खंधक ने भगवान का उपदेश सुना। विरक्त होकर 500 राजपुत्रों के साथ दीक्षित हो गया। खंधक ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना में निष्णात हुआ।
एकदा खंधक के मन में आया कुंभकटकपुर नगर जाकर अपनी सहोदरी पुरन्दरयशा को अवश्य प्रतिबोध दूं। वहाँ जाने के लिए जब प्रभु से आज्ञा चाही, तब प्रभु ने फरमाया-वहाँ जाने में तुम्हें मरणान्तक कष्ट उपस्थित होगा।
खंधक ने फिर से पूछा-माना कि मारणान्तिक कष्ट होगा, पर सारे आराधक होंगे या विराधक।
प्रभु ने फरमाया—तुम्हारे सिवाय सभी आराधक होंगे। केवल तू ही एक विराधक होगा। __खंधक मुनि फिर भी नहीं रुके। उन्होंने सोचा-मेरा एक अहित होकर भी यदि सबका हित सधता हो तो लाभ का ही सौदा है। ऐसा विचार करके वे अपने 500 शिष्यों सहित कुंभकटकपुर चले आए और नगर के बाहर उद्यान में ठहर गए।
पालक को जब इस बात का पता लगा कि 500 शिष्यों के साथ खंधक यहाँ आये हैं तब उसने अपनी पराजय का बदला लेना चाहा। राजा को बरगलाने के लिए एक षडयंत्र रचा। उपवन में गुप्तरूप से शस्त्र गड़वाकर राजा से उसने कहा'खंधक आपका राज्य छीनने आये हैं, मौके की ताक में हैं। अपने आवास स्थान के आस-पास गुप्त रूप से शस्त्र गड़वा रखे हैं। इसके साथ जो 500 श्रमण हैं, वे श्रमण नहीं सुभट हैं।'
राजा लोग कान के कच्चे होते ही हैं। उसे भी खंधक मुनि के प्रति शंका हो गई। उसने स्वयं जाकर उपवन की भूमि खुदवायी तो शस्त्र निकले। उन्हें देखते ही राजा दण्डक कुपित हो उठा। पालक को यह काम यों ही कहकर सौंप दिया कि जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा करना। ____ पालक को और क्या चाहिए था? बगीचे में एक बहुत बड़ा कोल्हू लगवाया। एक-एक करके साधुओं को उसमें पीलने लगा। जनता में हाहाकार मच गया, पर कोई क्या करे? उसने चार सौ निन्यानबे साधुओं को उस कोल्हू में पिल दिया। चारों
: कर्म-दर्शन 263