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एक बार गुरु-शिष्य दोनों एक गांव से दूसरे गांव जा रहे थे। मार्ग में गुरुजी के पैर से एक मृत मेढक के कलेवर का स्पर्श हो गया। शिष्य ने सचेत किया । "वह तो मरा हुआ ही था " — गुरु ने शान्त स्वर में शिष्य से कहा ।
स्वस्थान पर आकर शिष्य ने फिर उस पाप का प्रायश्चित्त करने के लिए कहा। गुरुजी मौन रहे। शिष्य ने सोचा - यह मेरी ही गलती है, मुझे अभी न कहकर सांध्य प्रतिक्रमण के समय कहना चाहिए। प्रतिक्रमण के समय फिर कहा, तब गुरुजी गुस्से से आग-बबूला हो उठे। गुस्से में तमतमाते हुए बोलने लगेमेढक कहते-कहते मेरे पीछे ही पड़ गया। ले, तुझे अभी बता दूं कि मेढक कैसे मरता है ? यो कहकर शिष्य को मारने दौड़े। शिष्य तो इधर-उधर छिप गया, अंधेरा अधिक था, अतः एक स्तम्भ से टकराकर गुरुजी वहीं गिर पड़े। चोट गहरी आई। तत्काल प्राण पंखेरू उड़ गये। मरकर चण्डकौशिक सर्प बने । सर्प भी इतने भयंकर थे, जिसकी दाढ़ में उग्र जहर था।
यह चण्डकौशिक वही है जिसने भगवान महावीर के डंक लगाये थे और वहीं पर भगवान के सम्बोधन से जातिस्मरणज्ञान करके अनशन स्वीकार कर लिया और देवयोनि में पैदा हुआ।
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वसन्तपुर नगर में जितशत्रु राजा था। वहाँ धनपति और धनावह नामक भाई श्रेष्ठ थे। उनकी बहिन का नाम धनश्री था; वह बालविधवा थी। वह धर्मध्यान में लीन रहती थी। एक बार मासकल्प की इच्छा से आचार्य धर्मघोष वहाँ आए। धनश्री उनके पास प्रतिबुद्ध हुई। दोनों भाई भी बहिन के स्नेहवश आचार्य के पास प्रतिबुद्ध हुए | धनश्री प्रव्रजित होना चाहती थी पर भाई उसको सांसारिक स्नेहवश दीक्षा की अनुमति नहीं दे रहे थे।
धनश्री धार्मिक कार्यों में बहुत अधिक व्यय करने लगी। उसकी दोनों भाभियां उसके इस कार्य से बहुत क्लेश पाती थी और अंटसंट बोलती रहती थीं । धनश्री ने सोचा - मुझे भाइयों के चित्त की परीक्षा करनी चाहिए। इनसे मुझे क्या ? शयनकाल में विश्वस्त होकर माया से आलोचना करके वह भाभी से धार्मिक चर्चा करने लगी । फिर आवाज बदलकर उसका पति सुन सके वैसी आवाज में भाभी से बोली- 'और
कर्म-दर्शन 267