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ओर
खून
के नाले बहने लगे। मांस के लोथड़ों के ढेर पड़े हैं, पक्षीगण मंडरा रहे हैं, पर नृशंस को दया कहां ?
महामुनि खंधक सभी संतों को समाधिस्थ रहने की बलवती प्रेरणा देते रहे। जब सबसे छोटे शिष्य को पिलने के लिए पालक ने पकड़ा तब खंधक मुनि का धैर्य डोल उठा। विचलित दिल खंधक ने पालक से कहा- मुझे इस लघु शिष्य का अवसान तो मत दिखा। मुझे भी तो तू पिलना चाहेगा। तेरे लिये पहले -पीछे में क्या फर्क पड़ता है? पहले मुझे पिल दे, बाद में इसे पिलना ।
यह सुनते ही पालक की बांछें खिल उठी । त्यौरियां बदलकर बोला- 'मुझे पता ही नहीं था कि तुझे इसी का अधिक दुःख है । इसलिये इसे तो तेरी आंखों के सामने अवश्य पिलूंगा । यों कहकर उस लघु साधु को कोल्हू में डाल दिया ।
खंधक अपने आपको संभालकर नहीं रख सके । कुपित होकर तीखे स्वर में बोले – 'देख मेरे त्याग और तप का यदि कुछ फल है तो मैं तुम्हारे लिए, तुम्हारे देश के लिये, तुम्हारे राजा के लिए नामोनिशान मिटाने वाला बनूं।' यों बोलते मुनि को पालक ने पकड़कर कोल्हू में डाल दिया।
खंधक मुनि दिवंगत होकर अग्निकुमार देव बने । अवधिज्ञान से जब उन्होंने अपना पूर्वजन्म देखा तब कुपित होना सहज ही था। अग्नि की विकुर्वणा करके सारे नगर को भस्म कर दिया। कुछ ही क्षणों में दण्डक देश दण्डकारण्य बन गया, कोई भी नहीं बचा। केवल पुरन्दरयशा, जो खंधक की बहन थी, बची। बचने का एक कारण था। रानी ने खंधक मुनि को पहले एक रत्नकम्बल दिया था। मुनि ने उस कम्बल का रजोहरण बनाया था। मुनि के पिले जाने पर खून से सने रजोहरण को कोई पक्षी मांस की बोटी समझकर चोंच में ले चला, पर भार अधिक होने से महारानी के सामने महलों में लाकर उसे गिरा दिया। रानी ने उसे पहचाना तब पता लगा — उसके भाई को, उनके 500 शिष्यों सहित पालक ने कोल्हू में पील दिया है। रानी बिसूर - बिसूरकर रोने लगी। विलाप करती हुई महारानी को देवता ने उठाकर प्रभु के समवसरण में पहुंचा दिया। वह वहाँ साध्वी बन गई। अवशेष सारे देश का खुरखोज ही नष्ट हो गया ।
यह वही दण्डकारण्य है, जहाँ वनवास के समय राम, लक्ष्मण और सीता आये थे और लक्ष्मण के हाथों शम्बूक का अनायास ही वध हो गया।
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264 कर्म-दर्शन
-निशीथ चूर्णिः
त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व 7