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606. जीव कर्कश वेदनीय कर्म का बंध कैसे करते हैं? उ. जीव प्राणातिपात पाप यावत् मिथ्यादर्शनशल्य पाप से कर्कश वेदनीय कर्म
का बंध करते हैं। 607. जीव अकर्कश वेदनीय कर्म का बंध कैसे करते हैं? उ. जीव प्राणातिपात विरमण यावत् परिग्रह विरमण, क्रोध विवेक यावत्
मिथ्यादर्शनशल्य विवेक से अकर्कश वेदनीय कर्म का बंध करते हैं। 608. कर्कश और अकर्कश वेदनीय कर्म का अनुभव कैसा होता है? उ. घाणी में पीले जाने वाले खंधक मुनि शिष्यों की वेदना कर्कश' तथा भरत
आदि चक्री के सात वेदनीय अकर्कश पुण्य कर्म जैसा अनुभव है। 609. गति के आधार पर साता-असाता वेदनीय की न्यूनाधिकता क्या है? उ. देव और मनुष्य गति में प्रायः सातावेदनीय का और नरक व तिर्यंच में प्राय:
असातावेदनीय का उदय रहता है। 610. क्या देव और मनुष्य में असाता का उदय होता है? उ. हां। देवता में उनके सिंहासन का अपहरण होने से, देवी का वियोग होने
से, अपने से अधिक ऋद्धि सम्पन्न देव को देखकर कई देवों को देवगति से च्युत होने का प्रसंग आने पर और भी अनेक कारणों से असाता के उदय के प्रसंग आते हैं। इसी तरह वियोग, गरीबी, बीमारी, अपयश, बंधन आदि प्रसंगों में मनुष्य
के असाता का उदय होता है। 611. क्या नरकगति में भी सातवेदनीय के प्रसंग आते हैं? उ. नरकगति में भी नैरयिक जीव उपपात आदि के समय सातावेदनीय कर्म का
अनुभव करते हैं। चार स्थानों से नैयिक साता का अनुभव करते हैं1. उपपात-जन्म के समय उसके क्षेत्रजा वेदना, परस्पर उदीरित वेदना
और परमाधार्मिक द्वारा उदीरित वेदना नहीं होती। 2. देव कर्म-कोई महर्द्धिक देव पूर्वभव के स्नेह के कारण नरक में
जाकर कुछ समय के लिए किसी वेदना को उपशान्त कर देता है, तब
वह सात का वेदन करता है। 3. अध्यवसान-नैरयिक शुभ अध्यवसाय के निमित्त से सुख प्राप्त
करता है। यथा—सम्यक्त्व प्राप्ति के समय उसे महान् हर्ष होता है, मानो जन्मान्ध व्यक्ति को आंख मिल गई हो।
1. कथा संख्या 24
136 कर्म-दर्शन
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