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उसे बारह वर्ष तक मूर्छा में रहना पड़ेगा। राजन् ! हम इसके लिए कुछ भी कर पाने में असमर्थ हैं।
इतना कहकर देव अदृश्य हो गया। राजा अपनी पुत्री के अशुभ कर्मों के बारे में सोचता रहा।
-कर्मलोक : बौद्धिक विकलता
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ज्ञानी का अपमान
श्रतज्ञानावरणीय कर्म बंध से सम्बन्धित अष्टावक्र की कहानी प्रासंगिक मालूम पड़ती है। कहा जाता है अष्टावक्र के शरीर के आठ अवयव टेढ़े-मेढ़े एवं वक्र थे इसलिए उन्हें अष्टावक्र कहा जाता था। वे बहुत ज्ञानी थे और नगर से बाहर जंगल में रहते थे। एक दिन राजा जनक ने उन्हें विद्वानों की विशेष सभा में बुलाया। अष्टावक्र इस बात को जानते थे कि राजा जनक विद्वानों का आदर करते हैं अत: वे उनकी सभा में गये।
जैसे ही अष्टावक्र ने राजसभा में प्रवेश किया वहाँ बैठे हुए राजा सहित सभी विद्वान उन्हें देखकर जोर-जोर से हंसने लगे। जब उनका हंसना बंद हुआ तब अष्टावक्र ने उन्मुक्त होकर जोर से हंसना प्रारम्भ कर दिया। यह नजारा देख कर सभी विद्वान् एक-दूसरे को साश्चर्य देखने लगे।
राजा जनक ने अष्टावक्र से पूछा, “महात्मन्! हम लोग तो सकारण हंसे, आप किस कारण हंस रहे हो?"
अष्टावक्र ने कहा--"राजन् आपने मुझे विद्वानों की सभा में बुलाया था किन्तु यहाँ प्रवेश करते ही मुझे यह एहसास हुआ कि ये चमारों की सभा है। इसीलिए मुझे हंसी आ गई। जो चमार होते हैं वे ही चमड़ी को देखते हैं। आपने भी मेरा ज्ञान नहीं देखा मात्र चमड़ी को देखकर हंस पड़े। यह सुनकर राजा सहित सभी विद्वानों ने अष्टावक्र से क्षमायाचना की। इस प्रकार विशिष्ट ज्ञानी पुरुषों का उपहास करने से श्रृंतज्ञानावरण कर्म बंधता है।
250 कर्म-दर्शन