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अपना आयुष्य पूर्णकर अमरावती के राजमहल में महारानी चित्रवती की पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई। अतिशय रूपवती होने से अमरवाहन ने उसका नाम रूपमाला दिया। रूपमाला आठ वर्ष की हुई। पूर्व में किये हुए दुष्कर्म उदय में आये। एक दिन घूमने के लिए बगीचे में गई, बरसात का मौसम था, एक दिन पहले की मुसलाधार वर्षा से बगीचे की बावड़ी पूरी भरी हुयी थी। रूपमाला उस बावड़ी के किनारे-किनारे चल रही थी। अचानक किनारे की मिट्टी खिसकने से वह फिसल गई और भीतर चली गई। साथ चलने वाली सहेलियों ने शोर मचाया। तत्काल उद्यान के कर्मचारी दौड़ते हुए आए, उनमें कई तैराक भी थे, बावड़ी में कूदे उसे निकालकर बाहर ले आए।
राजा को यह सूचना मिलते ही महारानी तथा अन्य राजमहल के सदस्यों के साथ आया। रूपमाला को राजमहल में ले गये। उपचार चालू किया। काफी प्रयत्नों के बावजूद भी राजकन्या की मूर्छा नहीं टूट सकी, चेतना पुनः नहीं लौट सकी। मूर्छावस्था में उसको भोजन-पानी दिया जाता रहा।
राजा के मन में रूपमाला को विदुषी तथा संगीतज्ञ बनाने की उत्कृष्ट अभिलाषा थी, पर वह धरी ही रह गई। समय व्यतीत होता गया, उपचार चलता रहा, बारह वर्ष की प्रलम्ब अवधि के बाद कुछ चेतना लौटी। वह अपना नाम तथा माता-पिता को पहचानने लगी। उसको कपड़े पहनने तक का भान नहीं रहा और न किसी से बात कर सकती थी। केवल वह भूख और प्यास बुझाने के लिए इशारा कर सकती थी, परिवार के लिए केवल भार स्वरूप थी।
राजा स्वयं आश्चर्यचकित था, ऐसा क्यों हुआ है? किसी ने राजा को सुझाया—यदि अट्ठम तप (तीन दिन का उपवास) करके 'मनरूक् देव' की आराधना की जाए, तो सम्भव है—कुछ काम बन जाए।
राजा ने तेला किया। देव प्रकट हुआ। राजा ने रूपमाला के बारे में जानकारी दी तथा सहायता की प्रार्थना की।
मनरूक् देव ने गंभीर मुद्रा में कहा-राजन्! हम सहायक उसी के बनते हैं, जिसके पुण्य प्रबल हों। अगर पुण्य नहीं हो तो हम कुछ नहीं कर सकते। पुण्य तो व्यक्ति का अपना-अपना होता है। हम तो केवल निमित्त मात्र होते हैं। नये सिरे से हम कुछ नहीं कर सकते।
देव ने आगे कहा—तुम्हारी पुत्री रूपमाला ने पिछले जन्म में ऐसे कार्य किये थे, जिनको अब भोगना ही पड़ेगा। उसने अपनी सौत के लड़के विनयबाहु को बारह घण्टे तक मूर्छावस्था में रखा था, बाद में भी वह काफी समय तक अस्वस्थ बना रहा। उस समय के बंधे हुए कर्म अब अपना फल दिखा रहे हैं। बारह घण्टों के बदले
- कर्म-दर्शन 249