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ज्ञान-प्राप्ति में विघ्न डालना
एक विधवा का इकलौता बालक अपनी बौद्धिक विलक्षणता से एक अध्यापक का कृपापात्र बन गया। अध्यापक भी उसे उदारतापूर्वक पढ़ाते थे और उसकी फीस माफ करवा देते थे। अध्यापक स्वयं उसे पाठ्य-पुस्तकें भी देते थे। यहाँ तक कि जिस विषय में वह बालक कमजोर था उस विषय को वे प्रतिदिन एक घण्टा उसे अधिक पढ़ाते थे।
बालक की सफलता और उन्नति पड़ौसी से देखी नहीं गई। उसने एक दिन मौका पाकर अध्यापक से कहा—'मास्टरजी ! आप जिस बालक को फ्री पढ़ाते हैं और जिसका हर दृष्टि से खयाल रखते हैं, उसकी माँ आपको बहुत भला-बुरा कहती है। वह हरदम यही कहती है, मास्टरजी पढ़ाई के बहाने मेरे बच्चे से अपने घर का काम करवाते हैं। उन्होंने तो मेरे बेटे को नौकर समझ रखा है। इस प्रकार प्रतिदिन मैं आपके लिए ऐसी अपमानपूर्ण बातें सुनकर थक गया हूँ पर आप कितने भले हैं जो दयाभाव से उसके बच्चे को पढ़ाते हैं।" पड़ौसी के इस प्रकार बहकाने से अध्यापकजी उसकी बातों में आ गये। उन्होंने दूसरे दिन से ही उसे पढ़ाना और सहायता देना बंद कर दिया। फलतः उस बालक की ज्ञान प्राप्ति में विघ्न उपस्थित हो गया। पड़ौसी ने ऐसा करके ज्ञानावरणीय कर्म का बंध कर लिया। इस प्रकार जो व्यक्ति किसी की ज्ञान साधना में बाधक बनते हैं, ज्ञान प्राप्ति के साधनों को समाप्त करने या बिगाड़ने का प्रयास करते हैं वे ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करते हैं।
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ज्ञानान्तराय
धारा नरेश जयबाहु के दो रानियां थीं—विजयवती और विनयवती। दोनों मामा-बुआ की बहनें थीं। दोनों के हृदय में पुत्र प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा थी। दोनों ज्येष्ठ पुत्र की माता बनने का स्वप्न देख रही थीं। दोनों की यह लालसा थी-मेरा
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कर्म-दर्शन 247