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यह घटना सुनकर राजा शंख और रानी कलावती दोनों प्रतिबुद्ध हो गए तथा आगे ग्यारहवें भाव में मुक्त हो गये ।
—पुहवीचंद चरित्रये
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असातावेदनीय
श्रावस्ती के राजा कनककेतु के एक पुत्र था, जिसका नाम था खंधक। खंधककुमार अनेक कार्य में कुशल तथा विचक्षण था । खंधक की बहिन कुमारी सुनन्दा भी विदुषी और सद्संस्कारी थी । सुनन्दा का विवाह कुन्ती नगर के महाराज पुरुषसिंह के साथ किया गया।
एक बार सावत्थी नगरी में विजयसेन मुनि आये । राजकुमार खंधक मुनि की वाणी सुनकर विरक्त हो गया और संयमी बन गया। संयम लेकर थोड़े ही दिनों में वह सुयोग्य बना।
खंधक मुनि गुरु से स्वतंत्र विहार की अनुज्ञा प्राप्त कर स्वतंत्र विचरने लगे । जब खंधक मुनि के पिता महाराज 'कनककेतु' को मुनि के पृथक् विहार का पता लगा तो पितृ-हृदयवश अपने 500 सुभटों को मुनि के अंगरक्षक के रूप में मुनि के साथ भेज दिया। खंधक मुनि को इनकी कोई अपेक्षा नहीं थी । फिर भी वे 500 सुभट छाया की तरह मुनि के साथ-साथ रहते थे। कोई कितनी ही सजगता रखे, परन्तु भवितव्यता को कोई टाल नहीं सकता ।
खंधक मुनि विहार करते-करते अपनी बहिन की राजधानी कुन्ती नगर में आये। मुनि के मासखमण तप का पारणा था। सुभटों ने सोचा, यहाँ तो बहिन का ही राज्य है। मुनि को यहाँ क्या भय है। इस प्रकार विचार कर नगर में इधर-उधर घूमने चले गये। मुनि भिक्षा के लिए जाते हुए राजमहल के नीचे से गुजरे। ऊपर गवाक्ष में बैठे राजा-रानी अर्थात् पुरुषसिंह और सुनन्दा चौपड़ खेल रहे थे।
मुनि को देखकर रानी सुनन्दा को अपने भाई की स्मृति हो आई । खेल से दिल उचट गया। आंखों में आंसू बह गये। राजा ने सोचा-रानी मुनि को देखकर अन्यमनस्क क्यों हुई। उसे रानी के चरित्र पर संदेह हुआ। खेल समाप्त कर सभा में
कर्म - दर्शन 253