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कार्मिकी बुद्धि
एक बार एक चोर ने किसी सेठ के यहाँ पद्म के आकार की सेंध लगाई। प्रात:काल लोगों ने चोर के कला-चातुर्य की प्रशंसा की। वह चोर भी लोगों की प्रशंसा सुनने वहाँ आया। लोगों की प्रशंसा सुनकर एक किसान बोला-'अभ्यास कर लेने पर कुछ भी दुष्कर नहीं होता।' चोर ने जब यह बात सुनी तो आग-बबूला हो गया। चोर ने लोगों से उसका परिचय पूछा। एक दिन उसको खेत में खड़ा देखकर वह उसके पास आया और बोला—'मैं तुम्हें अभी अपनी छूरी से मारता हूँ।' किसान ने इसका कारण पूछा तो चोर बोला-'उस दिन तुमने मेरे द्वारा लगाई गई सेंध की प्रशंसा नहीं की थी।' उसकी बात सुनकर किसान बोला-'मैंने ठीक ही तो कहा था कि जो जिस विषय का अभ्यास कर लेता है, वह उसमें प्रकर्ष प्राप्त कर लेता है। तुम मेरा कौशल देखो।' किसान ने भूमि पर एक वस्त्र बिछाया और मुट्ठी में मूंग लेकर बोला-'यदि तुम कहो तो मैं इन सबको अधोमुख गिरा हूं, यदि कहो तो ऊर्ध्वमुख या तिरछा गिरा दं।' चोर के कहने पर उसने मंगों को अधोमुख गिराया। तस्कर बहुत विस्मित और प्रसन्न हुआ और उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसका क्रोध उपशान्त हो गया। पद्माकार सेंध लगाना चोर की तथा मूंग को अधोमुख गिराना किसान की कर्मजा बुद्धि थी।
आव. नि. 588/20
(9)
पारिणामिकी बुद्धि नंदीषेण महाराज श्रेणिक का पत्र था। उसका अनेक लावण्यवती कन्याओं के साथ विवाह हुआ। एक बार विरक्त होकर वह भगवान महावीर के पास मुनि बन गया। उसका एक शिष्य संयम को छोड़कर गृहवास में जाने के लिए उत्सुक हो गया। नंदीषेण ने सोचा-'यदि भगवान राजगृह में समवसृत हो तो अस्थिर मुनि रानियों को तथा अन्य अतिशायी वस्तुओं को देखकर स्थिर हो सकता है।' यह सोचकर नंदीषेण राजगृह गए। भगवान भी वहाँ पधार गए। महाराज श्रेणिक अपने अन्तःपुर के साथ भगवान के दर्शन करने निकला। अन्य कुमार भी अपने-अपने
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