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798. देवता, नारकी आदि गतियों का आयुष्य पुण्य का उदय है या पाप का ?
उ. देवता तथा संज्ञी मनुष्यों का आयुष्य शुभ अध्यवसाय से बंधता है, इसलिए
पुण्य का उदय है। असंज्ञी मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकी का आयुष्य अशुभ अध्यवसाय से बंधता है इसलिए पाप का उदय है। कई तिर्यंच का आयुष्य भी पुण्य का उदय है।
799. जीव आगामी भव का आयुष्य बांधते समय आकर्ष करता है ? उ. आकर्ष का अर्थ है— प्रयत्न करना । जब अध्यवसाय तीव्र हो तो एक ही प्रयत्न में आयुष्य का बंध कर लेता है। मंद या मंदत्तर हो तो 2 से 8 तक आकर्ष करने पड़ सकते हैं। उनका कालमान अन्तर्मुहूर्त का होता है ।
800. जिन जीवों की आयु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती है, क्या उन सबका अन्तर्मुहूर्त समान होता है ?
उ. अन्तर्मुहूर्त के असंख्य भेद हैं । अन्तर्मुहूर्त वाले भवों की अपेक्षा सबसे छोटा भव 256 आवलिका का होता है और बड़ा भव 16777219 आवलिका का होता है। ये सब अन्तर्मुहूर्त ही हैं। अतः सारे अन्तर्मुहूर्त समान नहीं होते।
801. पृथ्वी, जल तथा वनस्पति के जीवों में तेजोलेश्या अपर्याप्त अवस्था में हो सकती है; क्या तेजोलेश्या में उनके आयुष्य का बंधन हो सकता है ? उ. कोई देव तेजोलेश्या वाला मरकर तेजोलेश्या में अगर पृथ्वी, पानी, वनस्पति में जन्म लेता है तो अपर्याप्त अवस्था में इनके तेजोलेश्या रहती है। तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना कोई भी आगामी भव के आयुष्य को नहीं बांध सकता। पृथ्वी, पानी, वनस्पति में पर्याप्त होने से पहले ही तेजोलेश्या समाप्त हो जाती है।
802. तीन विकलेन्द्रिय जीवों में अपर्याप्त अवस्था में दूसरा गुणस्थान हो सकता है ? क्या उस समय आयुष्य कर्म का बंध भी हो सकता है ?
उ. तीन विकलेन्द्रिय जीवों में सास्वादन सम्यक्त्व के समय आयुष्य कर्म का बंध नहीं होता है। क्योंकि भ. श. 1.3.7 में कहा गया है कि आहार, शरीर और इन्द्रिय पर्याप्ति से पर्याप्त अवस्था उपपन्न अवस्था है। अनुपपन्न अवस्था में जीव के आयुष्य का बंध नहीं होता है। सम्यक्त्व दशा में आयु बंध हो तो केवल वैमानिक देवगति का ही बंध हो सकता है। तीन विकलेन्द्रियों की गति देवभव की नहीं है। उनके आयु बंध से पहले ही गुणस्थान बदल जाता है।
174 कर्म-दर्शन